उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
तब कभी-कभी कोई एक आध आंसू भी निकल आता है। सब कह उठते हैं "टसुये बहा रही है।"
तुम्हें भी शायद लिखते हों।
परन्तु मेरे प्राणाधार, सच इस एक बात के सिवाय मुझे कोई औऱ दुख नहीं हैं।
हां, एक अफसोस जरूर है कि इनमें से किसी ने भी कभी मेरे मन मे अन्दर झांकने की कोशिश क्यों नहीं की? मेरे हृदय तो इन सब के लिए सेवा भाव से भरा पड़ा है। प्यार से उमड़ जाता है।
और ये मुझसे घृणा करते हैं? मुझे हीनता से देखते हैं?
काश यह मुझे समझ पाते।
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स्वामीनाथ,
तुम बहुत दुःखी हो? क्या मेरे खतों के कारण? सचमुच मैं बहुत स्वार्थी हूँ। इतना अन्याय सहती हूँ और किसी पर अपना मन स्पष्ट नहीं कर सकती तो तुम्हें खत लिखने बैठ जाती हूँ।
तुम्हें याद कर लेने से बोझ हल्का हो जाता है न।
यूँ तो अब तुम्हें याद करने के लिए भी समय नहीं निकाल पाती हूँ। गई रात तक घर के सारे काम मुझे ही करने होते हैं। सुबह भोर के तड़के से लेकर आधी रात तक। जाने आप ही आप यह कैसे हो गया है कि घर का सारा कारोबार मेरे ही हाथों में आ गया हैं। सुबह की पूजा से लेकर रसोई, सारा काम, सभी की देख-रेख सारे घर की सफाई, सारा इन्तजा़म मुझे ही तो करना होता है।
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