उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पुरुषोत्तम किन्तु इस तरह सहज में छोड़ने वाला नहीं था। वह लाँग कसकर एक पक्के बाँस की लकड़ी कन्धों पर रखकर बोला, “श्रीकान्त बाबू, आपकी इच्छा हो तो भले ही आप बन्दूक ले चलें; किन्तु अपने हाथ में लाठी रहते, भूत हो चाहे प्रेत - मैं किसी को भी पास न फटकने दूँगा।”
“किन्तु वक्त पर हाथ में लाठी रहेगी भी?”
“ठीक इसी तरह रहेगी बाबू, आप उस समय देख लेना। कोस-भर का रास्ता है, रात को ग्यारह के भीतर ही रवाना हो जाना चाहिए।”
मैंने देखा, उसका आग्रह मानो कुछ अतिरिक्त-सा है।
जाने के लिए उस समय भी करीब घण्टे-भर की देर थी। मैं तम्बू के बाहर टहलकर इस विषय पर मन ही मन आन्दोलन करके, देख रहा था कि वस्तु वास्तव में क्या हो सकती है। इन सब विषयों में मैं जिसका शिष्य था, उसे भूत का भय बिल्कुल नहीं था। लड़कपन की बातें याद आ रही थीं - उस रात्रि को जब इन्द्र ने कहा था, “श्रीकान्त, मन ही मन राम-नाम लेता रह; वह लड़का मेरे पीछे बैठा हुआ है।” केवल उसी दिन भय के मारे मैं बेहोश हो गया था, और किसी दिन नहीं। फिर डरने का मौका ही नहीं आया। किन्तु आज की बात सच हो, तो वह वस्तु है क्या? इन्द्र स्वयं भूत में विश्वास करता था। किन्तु उसने भी कभी आँखों से नहीं देखा। मैं भी अपने मन ही मन चाहे जितना अविश्वास क्यों न करूँ, स्थान और काल के प्रभाव से मेरे शरीर में उस समय सनसनी न पैदा हो, यह बात नहीं। सहसा सामने के उस दुर्भेद्य अमावस्या के अन्धकार की ओर देखकर मुझे एक और अमावस्या की रात की बात याद आ गयी। वह दिन भी ऐसा ही एक शनिवार था।
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