उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
आलोचना अत्यधिक तेज हो उठी है, यह देखकर मैं वहाँ से उठ गया। “पक्षी मारने की तो हिम्मत नहीं पड़ती, बन्दूक की गोली से भूत मारेंगे साहब! बंगाली लोग अंगरेजी पढ़कर हिन्दू-शास्त्र थोड़े ही मानते हैं - ये मुर्गी तक तो खा जाते हैं - मुँह से ये लोग कितनी ही शेखी क्यों न मारें, काम के समय भाग खड़े होते हैं - एक धौंस पड़ते ही इनके दन्त कपाट लग जाते हैं!” इस तरह की समालोचना शुरू हुई। अर्थात्, जिन सब सूक्ष्म युक्ति-तर्कों की अवधारणा करने से हमारे राजा रईसों को आनन्द मिलता है, और जो उनके मस्तिष्क को अतिक्रम नहीं कर जाते - अर्थात् वे स्वयं भी जिनमें घुसकर दो शब्द कह सकते हैं - ऐसे ही वे सब युक्तितर्क थे।
इन लोगों के दल में सिर्फ एक आदमी ऐसा था जिसने स्वीकार किया कि मैं शिकार करना नहीं जानता और जो साधारणत: बातचीत भी कम करता था, शराब भी कम पीता था। नाम था उसका पुरुषोत्तम। शाम को आकर उसने मुझे पकड़ लिया और कहा, “मैं भी साथ चलूँगा - क्योंकि इसके पहले मैंने भी कभी भूत नहीं देखा। इसलिए, आज अब ऐसा अच्छा मौका मिला है, तब मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता।”- ऐसा कहकर वह खूब हँसने लगा। मैंने पूछा, “तुम क्या भूत नहीं मानते?”
“बिल्कुल नहीं।”
“क्यों नहीं मानते?”
“भूत नहीं है, इसलिए नहीं मानता।” इतना कहकर वह प्रचलित तर्क उठा-उठाकर बारम्बार अस्वीकार करने लगा। किन्तु, मैंने इतने सहज में उसे साथ ले जाना स्वीकार नहीं किया। क्योंकि, बहुत दिनों की जानकारी से मैंने जाना था कि, यह सब युक्ति-तर्क का व्यापार नहीं - यह तो संस्कार है। बुद्धि के द्वारा जो बिल्कुकल ही नहीं मानते, वे भी भय के स्थान पर आ पड़ने पर भय के मारे मूर्च्छित हो जाते हैं।
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