उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पंखे की हवा और जल के छींटे खाकर रामकमल होश में आकर लगे फफक-फफक कर रोने। सभी लोग पूछने लगे, “आप इस तरह भागे क्यों जा रहे थे?” भट्टाचार्य महाशय रोते-रोते बोले, “बाबा, बाघ नहीं, वह एक तगड़ा भालू था - छलाँग मारकर बैठकखाने में से बाहर आ गया।”
छोटे भइया और जतीन भइया बारम्बार कहने लगे, “भालू नहीं बाबा, एक भेड़िया था, पूँछ समेटे पायन्दाज के ऊपर बैठा गुर्रा रहा था।”
मँझले भइया, होश में आते ही अधमिची आँखों से दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए संक्षेप में बोले, “दी रॉयल बंगाल टाइगर।”
परन्तु वह है कहाँ? चाहे मँझले भइया का 'दी रॉयल बंगाल' हो, चाहे रामकमल का 'तगड़ा भालू' हो, परन्तु वह यहाँ आया ही किस तरह और चला ही कहाँ गया? जब इतने लोगों ने उसे देखा है तब वह होगा तो कुछ न कुछ अवश्य ही।
तब किसी ने विश्वास किया और किसी ने नहीं किया। किन्तु सभी भय-चकित नेत्रों से लालटेन लेकर चारों तरफ खोजने लगे।
अकस्मात् पहलवान किशोरसिंह 'वह बैठा है' कहकर एक छलाँग में बरामदे में ऊपर चढ़ गया। उसके बाद वहाँ भी ठेला-ठेली मच गयी। उतने सब लोग बरामदे पर एक साथ चढ़ना चाहते थे, किसी से भी क्षण-भर की देर न सही जाती थी। आँगन के एक तरफ अनार का दरख्त था। मालूम पड़ा कि उसी की घनी डालियों में एक बड़ा जानवर बैठा है। वह बाघ के समान ही मालूम होता था। पलक मारते न मारते सारा बरामदा खाली हो गया और बैठकखाना खचाखच भर गया। बरामदे में एक भी आदमी न रहा। घर की उस भीड़ में से फूफाजी का उत्तेजित कण्ठ स्वर सुन पड़ने लगा, “बरछी लाओ-बन्दूक लाओ।” हमारे मकान के पास के मकान में गगन बाबू के पास एक मुंगेरी बन्दूक थी। उनका लक्ष्य उसी अस्त्र पर था।
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