उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
'लाओ' तो ठीक, किन्तु लाए कौन? अनार का झाड़ था दरवाजे के ही निकट और फिर उस पर बैठा था भेड़िया। हिंदुस्तानी सिटपिटाए तक नहीं और जो लोग तमाशा देखने आए थे वे भी सनाका खींचकर रह गये।
ऐसी विपत्ति के समय न जाने कहाँ से इन्द्र आकर उपस्थित हो गया। शायद वह सामने के रास्ते से कहीं जा रहा था और शोरगुल सुनकर अन्दर घुस आया था। पल-भर में सौ कण्ठ एक साथ चीत्कार कर उठे, “ओ रे, बाघ है बाघ! भाग जा रे लड़के, भाग जा!”
पहले तो वह हड़बड़ाकर भीतर दौड़ आया किन्तु पलभर बाद ही, सब हाल सुनकर, निर्भय हो, आँगन में उतर लालटेन उठाकर देखने लगा।
दुमंजिले की खिड़कियों में से औरतें साँस रोककर इस साहसी लड़के की ओर देख-देखकर 'दुर्गा' नाम जपने लगीं। नीचे भीड़ में खड़े हुए हिंदुस्तानी सिपाही उसे हिम्मत बँधाने लगे और आभास देने लगे कि एकाध हथियार मिलने पर वे भी वहाँ आने को तैयार हैं!
अच्छी तरह देखकर इन्द्र ने कहा, “द्वारिका बाबू, यह तो बाघ नहीं मालूम होता।” उसकी बात समाप्त होते न होते वह 'रॉयल बंगाल टाइगर' दोनों हाथ जोड़कर मनुष्य के ही स्वर में रो पड़ा और बोला, “नहीं, बाबूजी, नहीं, मैं बाघ-भालू नहीं, श्रीनाथ बहुरूपिया हूँ।” इन्द्र ठठाकर हँस पड़ा। भट्टाचार्य महाशय खड़ाऊँ हाथ में लिये सबसे आगे दौड़ पड़े-
“हरामजादे, तुझे डराने के लिए और कोई जगह नहीं मिली?” फूफाजी ने महाक्रोध से हुक्म दिया, “साले को कान पकड़कर लाओ।”
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