उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
किशोरी सिंह ने उसे सबसे पहले देखा था, इसलिए उसका दावा सबसे प्रबल था। वह गया और उसके कान पकड़कर घसीटता हुआ ले आया। भट्टाचार्य महाशय उसकी पीठ पर जोर-जोर से खड़ाऊँ मारने लगे और गुस्से के मारे दनादन हिंदी बोलने लगे-
“इसी हरामजादे बदजात के कारण मेरी हड्डी-पसली चूर हो गयी है। साले पछहियों ने घूँसे मार-मारकर कचूमर निकाल दिया।”
श्रीनाथ का मकान बारासत में था। वह हर साल इसी समय एक बार रोजगार करने आता था। कल भी वह इस घर में नारद बनकर गाना सुना गया था। वह कभी भट्टाचार्य महाशय के और कभी फूफाजी के पैर पकड़ने लगा। बोला, “लड़कों ने इतना अधिक भयभीत होकर, और दीवट लुढ़काकर, ऐसा भीषण काण्ड मचा दिया कि मैं स्वयं भी मारे डर के उस वृक्ष की आड़ में जाकर छिप गया। सोचता था कि कुछ शान्ति होने पर, बाहर आकर, अपना स्वाँग दिखाकर जाऊँगा। किन्तु मामला उत्तरोत्तर ऐसा होता गया कि मेरी फिर हिम्मत ही नहीं हुई।”
श्रीनाथ आरजू-मिन्नत करने लगा; किन्तु फूफाजी का क्रोध कम हुआ ही नहीं। बुआजी स्वयं ऊपर से बोलीं, “तुम्हारे भाग्य भले थे जो सचमुच का बाघ-भालू नहीं निकला, नहीं, तो जैसे बहादुर तुम और तुम्हारे दरबान हैं - छोड़ दो बेचारे को, और दूर कर दो डयोढ़ी के इन पछहियाँ दरबानों को। एक जरा से लड़के में जो साहस है उतना घर-भर के सब आदमियों में मिलकर भी नहीं है।” फूफाजी ने कोई बात ही न सुनी; वरन् उन्होंने बुआजी के इस अभियोग पर आँखें घुमाकर ऐसा भाव धारण किया कि मानो इच्छा करते ही वे इन सब बातों का काफी और माकूल जवाब दे सकते हैं, परन्तु चूँकि औरतों की बातों का उत्तर देने की कोशिश करना भी पुरुष जाति के लिए अपमानकारक है इसलिए, और भी गरम होकर हुक्म दिया, “इसकी पूँछ काट डालो।” तब उसकी रंगीन कपड़े से लिपटी हुई घास की बनी लम्बी पूँछ काट डाली गयी, और उसे भगा दिया गया। बुआजी ऊपर से गुस्से में बोलीं, “पूँछ को सँभालकर रख छोड़ो, किसी समय काम आएगी!”
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