उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र ने मेरी ओर देखकर कहा, “मालूम पड़ता है, तुम इसी मकान में रहते हो, श्रीकांत!”
मैंने कहा, “हाँ, तुम, इतनी रात को कहाँ जाते थे?”
इन्द्र हँसकर बोला, “रात कहाँ है रे, अभी तो संध्या हुई है। मैं जाता हूँ अपनी डोंगी पर मछली पकड़ने। चलता है?”
मैंने डरकर पूछा, “इतने अन्धकार में डोंगी पर चढ़ोगे?”
वह फिर हँसा, बोला, “डर क्या है रे? इसी में तो मजा है। सिवाय इसके क्या अंधेरा हुए बगैर मछलियाँ पाई जा सकती हैं? तैरना जानता है?”
“खूब जानता हूँ।”
“तो फिर चल भाई।” यह कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। कहा, “मैं अकेला इतने बहाव में उस तरफ को नाव नहीं ले सकता, ऐसे ही किसी की खोज में था जो डरे नहीं।”
मैंने फिर कुछ न कहा। उसका हाथ पकड़े हुए चुपचाप रास्ते पर आ पहुँचा। पहले तो मानो मुझे अपने आप पर ही विश्वास न हुआ कि सचमुच ही उस रात्रि को मैं नाव चलाने जा रहा हूँ, क्योंकि जिस आह्नान के आकर्षण से उस स्तब्ध निबिड़ निशा में, घर के समस्त शासन-पाश को तुच्छ समझकर, अकेला बाहर चला आया था वह कितना बड़ा आकर्षण था, यह उस समय विचारकर देख सकना मेरे लिए साध्य ही नहीं था। अधिक समय बीतने के पूर्व ही गोसाईं बाग के उस भयंकर वन-पथ के सामने आ उपस्थित हुआ और इन्द्र का अनुसरण करता हुआ स्वप्नाविष्ट पुरुष की भाँति उसे पारकर गंगा के किनारे जा पहुँचा।
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