उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मेरी बुआ अत्यन्त गुप्त रीति से उनकी सहायता करती थीं, यह बात मैं और मेरे घर की एक बड़ी दासी के सिवा इस दुनिया में और कोई नहीं जानता था। बुआ एक दिन मुझे अकेले में बुलाकर बोलीं, “भइया श्रीकान्त, तू तो इस तरह रोग-शोक में जाकर अनेकों की खबर लिया करता है; उस छोकरी को भी एकाध दफे क्यों नहीं देख आया करता?” तब से मैं बराबर बीच-बीच में जाकर उन्हें देखा करता और बुआ के पैसों से यह चीज-वह चीज - खरीद कर दे आया करता। उनकी मृत्यु के समय केवल मैं ही अकेला उनके पास था। मरण-समय में ऐसा परिपूर्ण विकास और परिपूर्ण ज्ञान मैंने और किसी के नहीं देखा। विश्वास न करने पर भी, भय के मारे शरीर में जो सनसनी फैल जाती है, उसी के उदाहरण स्वरूप मैं यह घटना लिख रहा हूँ।
वह श्रावण की अमावस्या का दिन था। रात्रि के बारह बजने के बाद आँधी और पानी के प्रकोप से पृथ्वी मानो अपने स्थान से च्युत होने की तैयारी कर रही थी। सब खिड़की-दरवाजे बन्द थे - मैं खाट के पास ही एक बहुत पुरानी आधी टूटी हुई आराम-कुर्सी पर लेटा हुआ था। नीरू जीजी ने अपने स्वाभाविक मुक्त स्वर से मुझे अपने पास बुलाकर, हाथ उठाकर, मेरा कान अपने मुख के पास ले जाकर, धीरे से कहा, “श्रीकान्त, तू अपने घर जा।”
“सो क्यों नीरू जीजी, ऐसे आँधी-पानी में?”
“रहने दे आँधी-पानी। प्राण तो पहले हैं।” वे भ्रम में प्रलाप कर रही हैं, ऐसा समझकर मैं बोला, “अच्छा जाता हूँ, पानी जरा थम जाने दो।” नीरू जीजी अत्यन्त चिन्तित होकर बोल उठीं, “नहीं, श्रीकान्त, तू जा, जा भाई, जा - अब थोड़ी भी देर मत ठहर- जल्दी भाग जा।” इस दफा उनके कण्ठस्वर के भाव से मेरी छाती का भीतरी भाग काँप उठा। मैं बोला, “मुझसे जाने के लिए क्यों कहती हो?”
|