उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
प्रत्युत्तर में मेरा हाथ खींचकर और बन्द खिड़की की ओर लक्ष्य करके, वे चिल्ला उठीं, “जायेगा नहीं, तो क्या जान दे देगा? देखता नहीं है, मुझे ले जाने के लिए वे काले-काले सिपाही आए हैं। तू यहाँ पर मौजूद है, इसीलिए वे खिड़की में से ही मुझे डरा रहे हैं।”
इसके बाद उन्होंने कहना शुरू किया, “वे इस खाट के नीचे हैं, वे सिर के ऊपर हैं। वे मारने आ रहे हैं! यह लिया! वह पकड़ लिया!” यह चीत्कार रात के अन्तिम समय में तब समाप्त हुआ जब कि उनके प्राण भी प्राय: शेष हो चुके थे।
उक्त घटना आज भी मेरी छाती के भीतर गहरी जमकर बैठी हुई है। उस रात्रि को मुझे डर तो लगा ही था - याद-सा आता है कि मानो कुछ चेहरे भी देखे थे। यह सच है कि इस समय उस घटना की याद आने से हँसी आती है; परन्तु, यदि मुझे उस समय इस बात पर असंशय विश्वास न होता, कि किवाड़ खोलकर बाहर होते ही मैं नीरू जीजी के काले-काले सिपाही-सन्तरियों की भीड़ में जरूर पड़ जाऊँगा, तो उस दिन, अमावस्या के उस घोर दुर्योग को तुच्छ करके भी शायद मैं भाग खड़ा होता। साथ ही यह सब कुछ भी नहीं है, कुछ भी न था, यह भी जानता था; और मरणासन्न व्यक्ति केवल निदारुण विकार की बेहोशी में ही यह प्रलाप कर रहा था, सो भी समझता था। इतने में-
“बाबू!”
चौंककर मैं घूमा, देखा, रतन है।
“क्या है रे?”
“बाईजी ने प्रणाम कहा है।”
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