उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
जितना मैं विस्मित हुआ उतना ही खीझा भी। इतनी रात को अकस्मात् बुला भेजना केवल अत्यन्त अपमानकारक स्पर्धा ही मालूम हो, सो बात नहीं, गत तीन-चार दिनों के दोनों तरफ के व्यवहारों को याद करके भी यह प्रणाम कहला भेजना मानो मुझे बिल्कुल बेहूदा मालूम हुआ। किन्तु, इसके फलस्वरूप नौकर के सामने किसी तरह की उत्तेजना प्रकट न हो जाय; इस आशंका से अपने प्राणपण से सँभालकर मैंने कहा, “आज मेरे पास समय नहीं है रतन, मुझे बाहर जाना है, कल मिल सकूँगा।”
रतन सिखाया-पढ़ाया नौकर था - अदब-कायदे में पक्का। अत्यन्त आदर भरे मृदु स्वर से बोला, “बड़ी जरूरत है बाबूजी, एक दफे अपने कदमों की धूल देनी ही होगी। नहीं तो, बाईजी ने कहा है, वे स्वयं ही आ जाँयगी।”- सर्वनाश! इस तम्बू में इतनी रात को, इतने लोगों के सामने! मैं बोला, “तू समझाकर कहना रतन, आज नहीं, कल सवेरे ही मिल लूँगा। आज तो मैं किसी भी तरह नहीं जा सकता।” रतन बोला, “तो फिर वे ही आएँगी बाबूजी, मैं गत पाँच वर्षों से देख रहा हूँ कि बाईजी की बात में कभी जरा भी फर्क नहीं पड़ता। आप नहीं चलेंगे तो वे निश्चय ही आवेंगी।”
इस अन्याय असंगत जिद को देखकर मैं एड़ी से चोटी तक जल उठा। बोला, “अच्छा ठहरो, मैं आता हूँ।” तम्बू भीतर देखा, वारुणी की कृपा से जागता कोई नहीं है। पुरुषोत्तम भी गम्भीर निद्रा में मग्न है। नौकरों के तम्बू में सिर्फ दो-चार आदमी जाग रहे हैं। झटपट बूट पहिनकर एक कोट शरीर पर डाल लिया। राइफल ठीक रखी ही थी। उसे हाथ में लेकर रतन के साथ-साथ बाईजी के तम्बू में पहुँचा। प्यारी सामने ही खड़ी थी। मुझे आपादमस्तक बार-बार देखती हुई, किसी तरह की भूमिका बाँधो बगैर ही, क्रुद्धस्वर में बोल उठी, “मसान-वसान में तुम्हारा जाना न हो सकेगा-किसी तरह भी नहीं।”
बहुत ही आश्चर्यचकित होकर मैं बोला, “क्यों?”
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