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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


“क्यों और क्या? भूत-प्रेत क्या हैं नहीं, जो इस शनिवार की अमावस्या को तुम श्मशान जाओगे? क्या तुम अपने प्राणों को लेकर फिर लौट आ सकोगे वहाँ से?”

इतना कहकर प्यारी अकस्मात् रोने लगी और आँसुओं की अविरल धारा बहाने लगी। मैं विह्वल-सा होकर चुपचाप उसकी ओर देखता रह गया। क्या करूँ, क्या जवाब दूँ, कुछ सोच ही न सका। सोच न सकने में अचरज की बात ही क्या थी? जिससे जान नहीं, पहिचान नहीं, वह यदि हिताकांक्षा से आधी रात को बुलाकर ख़ामख्वाह रोना शुरू कर दे, तो कौन है ऐसा जो हत-बुद्धि न हो जाय! मेरा जवाब न पाकर प्यारी ने आँखें पोंछते हुए कहा, “तुम क्या किसी दिन भी शान्त-शिष्ट नहीं होओगे? ऐसे हठी बने रहकर ही जीवन बिता दोगे? जाओ, देखूँ तुम कैसे जाते हो? मैं भी फिर तुम्हारे साथ चलूँगी।” इतना कहकर उसने शाल उठाकर अपने शरीर पर डालने की तैयारी कर दी।

मैंने संक्षेप में कहा, “अच्छा है चलो!” मेरे इस छिपे हुए ताने से जल-भुनकर प्यारी बोली, “आहा! देश-विदेश में तब तो तुम्हारी सुख्याति की सीमा-परिसीमा न रहेगी! बाबू शिकार खेलने के लिए आकर, एक नाचने वाली को साथ लेकर, आधी रात को भूत देखने गये थे! वाह! मैं पूछती हूँ, घर से क्या बिल्कुल ही 'आउट' होकर आए हो? घृणा, विरक्ति, लाज-शरम आदि क्या कुछ भी नहीं रह गयी?” यह कहते-कहते उसका तीव्र कण्ठ मानो आर्द्र होकर भारी हो गया। बोली, “कभी तो तुम ऐसे नहीं थे। तुम्हारा इतना अध:पतन होगा, यह तो किसी ने भी कभी सोचा-समझा न था।” उसकी पिछली बात पर और कोई समय होता तो मैं इतना खीझ उठता कि जिसका पार न रहता; परन्तु इस समय क्रोध नहीं आया। मन ही मन मुझे लगा कि प्यारी को मानो मैंने पहिचान लिया है। ऐसा क्यों मन में आया सो फिर कहूँगा। उस समय मैं बोला, “लोगों के सोचने-समझने का मूल्य कितना है, सो तो तुम खुद भी जानती हो। तुम भी इतने अध:पतन के रास्ते जाओगी, क्या कभी किसी ने सोचा था?”

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