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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


प्यारी बोली, “भूत ही तो हूँ, और नहीं तो क्या? जो लोग मरकर भी नहीं मरते, वे ही तो भूत हैं; यही तो कहने का मतलब है?” थोड़ी देर ठहरकर वह स्वयं ही फिर कहने लगी, “एक हिसाब से तो, जो मैं मर चुकी हूँ सो सत्य है। किन्तु सच हो चाहे झूठ, अपने मरने की बात मैंने प्रसिद्ध नहीं की, मामा के जरिए माँ ने फैलाई थी। सुनना चाहते हो सब हाल?” मरने की यह बात सुनते ही मेरा संशय दूर हो गया। मैंने ठीक पहिचान लिया कि यह राजलक्ष्मी है। बहुत दिन पहले यह अपनी माता के संग तीर्थ-यात्रा करने गयी थी और फिर लौटकर नहीं आई। माँ ने गाँव में आकर यह बात प्रसिद्ध कर दी कि काशी में हैजे की बीमारी से वह मर गयी। उसे मैंने कभी देखा है, यह बात अवश्य ही मुझे याद न आ रही थी किन्तु उसकी एक आदत पर, मैं जबसे यहाँ आया था तभी से, ध्यान दे रहा था। जब वह गुस्से में होती थी तब दाँतों के नीचे अधर दबा लिया करती थी। कभी कहीं किसी को मानो ठीक इसी तरह करते अनेक बार देखा है, केवल यही बात बार-बार मन में आने लगी। किन्तु वह कौन था, कहाँ देखा था; कब देखा था- सो कुछ भी याद नहीं आता था। वही राजलक्ष्मी ऐसी हो गयी है, यह देखकर मैं क्षण-भर के लिए अचरज से अभिभूत हो गया। मैं जब अपने गाँव के मनसा पण्डित की पाठशाला में सब छात्रों का सरदार था, तब इसके दो पुश्त के कुलीन बाप ने अपना एक और ब्याह करके इसको घर से निकाल दिया। पति के द्वारा परित्यक्ता माता, सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी नामक दोनों कन्याओं को लेकर अपने बाप के घर चली आई। उम्र इसकी उस समय आठ-नौ की होगी और सुरलक्ष्मी की बारह-तेरह की। इसका रंग अवश्य ही खूब उजला था किन्तु मलेरिया और प्लीहा के मारे पेट मटके जैसा, हाथ पैर लकड़ी की तरह, सिर के बाल ताँबे के समान थे और कितने थे सो भी गिने जा सकते थे। मेरी मार के डर से यह लड़की करोंदों की झाड़ी में घुसकर करोंदों की माला गूँथ लाकर मुझे दिया करती थी। यदि वह माला किसी दिन छोटी होती तो, मैं पुराना पाठ पूछकर इसे जी भरकर चपतियाता था।

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