उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मार खाकर यह लड़की होठ चबाती हुई गुमसुम होकर बैठ रहती, किन्तु किसी तरह भी यह नहीं कहती कि रोज करोंदे संग्रह करना उसके लिए कितना कठिन है। जो कुछ भी हो, इतने दिनों तक तो मैं यही समझता था कि वह मेरे भय से इतना क्लेश स्वीकार करती है; किन्तु आज मानो हठात् कुछ संशय उत्पन्न हुआ। खैर जाने दो। उसके बाद इसका विवाह हो गया। वह विवाह भी एक विचित्र व्यापार था। बेचारा मामा भानजियों के ब्याह की चिन्ता के मारे मरा जा रहा था। दैवात् कहीं से यह खबर आई कि विरंचि दत्त का रसोइया कुलीन की सन्तान है। इस कुलीन की सन्तान को दत्त महाशय बाँकुड़े से अपनी बदली होते समय साथ ही लिवा लाए थे। विरंचि दत्त के द्वार पर मामा धरना देकर पड़ गये - ब्राह्मण की जाति-रक्षा करनी ही होगी! इतने दिन तक तो सब यही जानते थे कि दत्त महाशय का रसोइया भोला भाला भला आदमी है परन्तु मतलब के समय देखा गया कि रसोइया महाराज की सांसारिक बुद्धि किसी से भी कम नहीं है। सिर्फ इक्यावन रुपये दहेज की बात सुनकर वह जोर से सिर हिलाकर बोला, “इतने सस्ते में नहीं हो सकता महाशय - बाजार जाँच देखिए। पचास और एक रुपये में तो एक जोड़ी बड़े बकरे भी नहीं मिलते - और इतने में आप जमाई खोजते हैं! एक सौ और एक रुपये दो, तो एक बार इस पाटे पर और एक बार उस पाटे पर बैठकर दो फूल छोड़ दूँगा। दोनों ही बहिनें एक ही साथ 'पार' हो जाँयगी। क्या एक सौ रुपये - दो साँड़ खरीदने का खर्च-भी आप न देंगे?” बात कुछ असंगत नहीं थी। फिर भी अनेक मोल-तोल और बड़ी सही सिफारिश के बाद सत्तर रुपये में तय होकर एक ही रात में एक साथ सुरलक्ष्मी और राजलक्ष्मी का विवाह हो गया। दो दिन बाद सत्तर रुपये नकद लेकर वह दो पुश्त का कुलीन जमाई बाँकुड़ा चल दिया। इसके बाद फिर किसी ने उसे नहीं देखा। डेढ़ेक वर्ष बाद प्लिहा के ज्वर से सुरलक्ष्मी मर गयी और उसके भी वर्ष-डेढ़ वर्ष पीछे इस राजलक्ष्मी ने काशी में मरकर शिवत्व प्राप्त किया। यही है प्यारी बाईजी का संक्षिप्त इतिहास।
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