उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बाईजी ने कहा, “तुम क्या सोच रहे हो, बताऊँ?”
“क्या सोच रहा हूँ?”
“तुम सोच रहे हो- आहा! लड़कपन में मैंने इसे कितना कष्ट दिया है। काँटों के बन में भेजकर रोज-रोज करौंदे मँगवाया किया हूँ, और उसके बदले केवल मार-पीट ही करता रहा हूँ। मार खाकर यह गुपचुप हमेशा रोया ही की है, परन्तु चाहा कभी कुछ नहीं। आज यदि यह कुछ बात कहती है तो सुन ही न लूँ। न सही, न गया आज श्मशान को। यही न?”
मैं हँस पड़ा।
प्यारी ने भी हँसकर कहा, “यह तो होना ही चाहिए। बचपन में जिससे एक दफा प्यार हो जाता है, क्या वह कभी भूलता है? वह यदि अनुरोध करे तो फिर क्या उसे पैर से ठोकर मारकर टाला जा सकता है? संसार में ऐसा निष्ठुर कौन है? चलो, थोड़ा बैठ लो, बहुत-सी बातें करनी हैं। रतन, बाबूजी के जूते तो खोल दे। अरे हँसते हो?”
“हँसता हूँ यह देखकर, कि तुम लोग मनुष्य को भुलाकर किस तरह वश में कर लिया करती हो।”
प्यारी ने भी हँस दिया बोली, “यह देखकर हँसते हो! दूसरों को तो बातों में भुलाकर वश में किया जा सकता है; किन्तु, होश सँभालते ही स्वयं जिसके वश में रही हूँ, उसे भी क्या बातों में भुलाया जा सकता है? अच्छा आज तो वैसे मैं बात कर लेती हूँ, किन्तु उस समय हर रोज जब काँटों में क्षत-विक्षत होकर माला गूँथ देती थी; तब कितनी बात किया करती थी, कहो न? वह क्या तुम्हारी मार के डर से? यह बात भूलकर भी मन में मत लाना। राजलक्ष्मी ऐसी नहीं है। किन्तु राम! राम! तुम तो मुझे बिल्कुल ही भूल गये थे, देखकर पहिचान भी न सके!” यों कहकर हँसते ही, सिर हिलाने से उसके दोनों कानों के हीरे तक हिलकर हँस उठे।
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