लोगों की राय

उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


मैंने कहा, “मैंने तुम्हें मन में स्थान ही कब दिया था, जो भूलता नहीं? वरन् आज मैंने तुम्हें पहिचान लिया, यह देखकर मुझे खुद ही अचरज हो रहा है। अच्छा, बारह बज चुके - जाता हूँ।”

प्यारी का हँसता हुआ चेहरा पल-भर में बिल्कुल फीका पड़ गया। तनिक सँभलकर उसने कहा, “अच्छा, भूत-प्रेत मत मानों, किन्तु साँप-बिच्छू, बाघ-भालू, जंगली सूअर आदि भी तो वन-जंगल में अंधेरी रात में फिरते रहते हैं, उन्हें तो मानना चाहिए?”

मैंने कहा, “इनको तो मैं मानता ही हूँ, और इनसे खूब सावधान रहकर चलता हूँ।”

मुझे जाने को उद्यत देखकर वह धीरे से बोली, “तुम जिस धातु के बने आदमी हो, उससे मैं जानती थी कि तुम्हें अटका न सकूँगी। यह भय मुझे खूब ही हो रहा था, फिर भी मैंने सोचा कि रो-धोकर, हाथ-पैर जोड़कर, अन्त तक शायद तुम्हें रोक सकूँ। किन्तु देखती हूँ रोना ही सार रहा।” मुझे जवाब देते न देख वह फिर बोली, “अच्छा जाओ, पीछे लौटाकर अब और असगुन न करूँगी। किन्तु, यदि कुछ हो जायेगा तो इस विदेश में, पराई जगह, राजे-रजवाड़े या मित्र-दोस्त, कोई काम नहीं आवेंगे, तब मुझे ही भुगतना पड़ेगा। मुझे पहिचान नहीं सकते, यह मेरे मुँह पर ही कहकर तुम अपने पौरुष की डींग हाँककर चल दिए, किन्तु हमारा तो स्त्रियों का मन है! विपत्ति के समय मैं तो यह कह न सकूँगी कि “मैं तुम्हें पहिचानती ही नहीं।” यह कहकर उसने एक दीर्घ नि:श्वास दबा लिया। जाते-जाते मैंने लौटकर, खड़े होकर हँस दिया। न जाने क्यों मानो मुझे कुछ कष्ट का अनुभव हुआ। मैं बोला, “अच्छा तो है बाईजी, यह तो मुझे एक बड़ा लाभ होगा। मेरा तो कोई कहीं नहीं है, तब ही तो मैं जान सकूँगा कि हाँ, मेरा भी कहीं कोई है - जो मुझे छोड़कर नहीं जा सकता!”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book