उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
प्यारी बोली, “सो क्या तुम जानते नहीं हो? एक सौ बार 'बाईजी' कहकर तुम मेरा चाहे जितना अपमान क्यों न करो, राजलक्ष्मी तुम्हें छोड़कर न जा सकेगी - यह बात क्या तुम मन ही मन नहीं समझ रहे हो? किन्तु यदि मैं छोड़कर जा सकती, तो अच्छा होता। तुम्हें एक सीख मिल जाती। किन्तु, कितनी बुरी है यह स्त्रियों की जाति। एक दफा भी किसी को प्यार किया कि मरी!”
मैं बोला, “प्यारी, भले संन्यासी को भी भीख नहीं मिलती, जानती हो, क्यों?”
प्यारी बोली, “जानती हूँ, किन्तु तुम्हारे इस व्यंग्य में इतनी धार नहीं रही है कि इससे तुम मुझे वेध सको। यह मेरा ईश्वरदत्त धन है। और, जब कि मुझे संसार में भले-बुरे तक का ज्ञान नहीं था; उस समय का यह है। आज का नहीं।” मैं कुछ नरम होकर बोला, “अच्छी बात है, चाहता हूँ कि आज मुझ पर कोई आफत आवे और तब तुम्हारे इस ईश्वर-दत्त धन की हाथों-हाथ जाँच हो जाये।”
प्यारी बोली, “राम-राम! ऐसी बात मत कहो। अच्छे-भले लौट आओ- इस सच्चाई की जाँच करने की जरूरत नहीं है। मेरे ऐसे भाग कहाँ कि वक्त-मौके पर अपने हाथ हिला-डुलाकर तुम्हें स्वस्थ सबल कर सकूँ। यदि ऐसा हो तो समझूँगी कि इस जन्म के एक कर्त्तव्य को पूरा कर डाला।” इतना कहकर उसने अपना मुँह फेरकर अपने आँसू छिपा लिये, यह हरीकेन के क्षीण प्रकाश में भी मैं अच्छी तरह जान गया।
“अच्छा, भगवान तुम्हारी इस साध को कभी किसी दिन पूरा करें,” कहकर और अधिक देर न करके मैं तम्बू के बाहर आ खड़ा हुआ। कौन जानता था कि हँसी-हँसी में ही मुँह से एक प्रचण्ड सत्य बाहर निकल जायेगी।
|