उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
तम्बू के भीतर से आँसुओं से रुँधे हुए कण्ठ से निकली हुई 'दुर्गा! दुर्गा!' की कातर पुकार कानों में आई और मैं तेज चाल से चल दिया।
मेरा सारा मन प्यारी की ही बातों से ढँक गया। कब मैं आम के बगीचे के बड़े अंधियारे मार्ग को पार कर गया, और कब नदी के किनारे के सरकारी बाँध के ऊपर आ खड़ा हुआ, यह मैं जान ही न सका। सारी राह सिर्फ यही एक बात सोचता-सोचता आया कि स्त्री-जाति का मन भी कैसा विराट अचिन्तनीय व्यापार है। इस प्लिहा के रोगवाली लड़की ने अपने मटके जैसे पेट और लकड़ी जैसे हाथ-पाँव लेकर, सबसे पहले किस समय मुझे चाहा था और करोंदों की माला से अपनी दरिद्र-पूजा को सम्पन्न किया था, सो मैं बिल्कुल ही न जान सका। और आज जब मैं जान सका, तब मेरे अचरज का पार नहीं रहा। अचरज कुछ इसलिए भी नहीं था - उपन्यास नाटकों में बाल्य-प्रणय की अनेकों कथाएँ पढ़ी हैं - किन्तु जिस वस्तु को गर्व के साथ, अपनी ईश्वर दत्त सम्पत्ति कहकर प्रकट करते हुए भी वह कुण्ठित नहीं हुई, उसे उसने, इतने दिनों तक, अपने इस घृणित जीवन के सैकड़ों मिथ्या प्रणयाभिनयों के बीच, किस कोने में जीवित रख छोड़ा था? कहाँ से इसके लिए वह खुराक जुटाती रही? किस रास्ते से प्रवेश करके वह उसका लालन-पालन करती रही?
“बाप!”
मैं एकदम चौंक पड़ा। सामने आँख उठाकर देखा, भूरे रंग की बालू का विस्तीर्ण मैदान है और उसे चीरती हुई एक शीर्ण नदी की वक्र रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई सुदूर में अन्तर्हित हो गयी है। समस्त मैदान में जगह-जगह काँस के पेड़ों के झुण्ड उग रहे हैं। अन्धकार में एकाएक जान पड़ा कि मानो ये सब एक-एक आदमी हैं, जो आज की इस भयंकर अमावस्या की रात्रि को प्रेतात्मा का नृत्य देखने के लिए आमन्त्रित होकर आए हैं और बालू के बिछे हुए फर्श पर मानो अपना अपना आसन ग्रहण करके सन्नाटे में प्रतीक्षा कर रहे हैं। सिर के ऊपर, घने काले आकाश में, संख्यातीत गृह-तारे भी, उत्सुकता के साथ अपनी आँखों को एक साथ खोले हुए ताक रहे हैं। वायु नहीं, शब्द नहीं, अपनी छाती के भीतर छोड़कर, जितनी दूर दृष्टि जाती थी वहाँ तक कहीं भी, प्राणों की जरा-सी भी आहट अनुभव करने की गुंजाइश नहीं। जो रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर थम गया, वह भी और कुछ नहीं बोला।
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