उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैं पश्चिम की ओर धीरे-धीरे चला। उसी ओर वह महाश्मशान था। एक दिन शिकार के लिए आकर, जिस सेमर के झाड़ों के झाड़ को देख गया था, कुछ दूर चलने पर उनके काले-काले डाल-पत्र दिखाई दिए। यही थे उस महाश्मशान के द्वारपाल। इन्हीं को पार करके आगे बढ़ना होगा। इसी समय से प्राणों की अस्पष्ट आहट मिलने लगी, परन्तु वह ऐसी नहीं थी जिससे कि चित्त कुछ प्रसन्न हो। कुछ और दूर चलने पर वह कुछ और साफ हुई। किसी माँ के 'कुम्भकर्णी निद्रा' में सो जाने पर उसका छोटा बच्चा, रोते-रोते अन्त में बिल्कुल निर्जीव-सा होकर, जिस प्रकार रह-रहकर रिरियाना शुरू कर देता है, ऐसा मालूम हुआ कि ठीक उसी तरह श्मशान के एकान्त में कोई रिरिया रहा है। मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि, जिसने उस रोने का इतिहास पहले कभी जाना-सुना न हो, वह ऐसी गहरी अंधेरी अमावस्या की रात्रि में अकेला उस ओर एक पैर भी आगे बढ़ाना नहीं चाहेगा। वह मनुष्य का बच्चा नहीं चमगीदड़ का बच्चा था, जो अंधेरे में अपनी माँ को न देख सकने के कारण रो रहा था - यह बात, पहले से जाने बिना, सम्भव नहीं है कि कोई अपने आप निश्चयपूर्वक कह सके कि यह आवाज मनुष्य के बच्चे की है। और भी नजदीक जाकर देखा, ठीक यही बात थी। झोलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके हुए, असंख्य चमगीदड़ रात्रि-वास कर रहे हैं और उन्हीं में का कोई शैतान बच्चा इस तरह आर्त्त कण्ठ से रो रहा है।
झाड़ के ऊपर वह रोता ही रहा और उसके नीचे से आगे बढ़ता हुआ मैं उस महाश्मशान के एक हिस्से में जा खड़ा हुआ। सुबह उस वृद्ध ने जो यह कहा था कि यहाँ लाखों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं - मैंने देखा, कि उसके कथन में जरा भी अत्युक्ति नहीं है - कपाल तो वहाँ असंख्य पड़े हुए थे; फिर भी, खिलाड़ी उस समय तक भी आकर नहीं जुट पाए थे। मेरे सिवाय कोई और अशरीरी दर्शक वहाँ उपस्थित था या नहीं, सो भी मैं इन दो नश्वर चक्षुओं से आविष्कृत नहीं कर सका। उस समय घोर अमावस्या थी। इसलिए, खेल शुरू होने में और अधिक देरी नहीं है, यह सोच करके मैं एक रेत के टीले पर जाकर बैठ गया। बन्दूक खोलकर, उसके टोंटे की और एक बार जाँच करके तथा फिर उसे यथास्थान लगाकर, मैंने उसे गोद में रख लिया और तैयार हो रहा। पर हाय रे टोंटे! विपत्ति के समय, उसने जरा भी सहायता नहीं की।
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