उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
रतन ने विनय के साथ बुलाया, “आइए।”
क्षण-भर के लिए आँखें मींचकर अपने अन्तर में डूबकर देखा, वहाँ होश-हवास में कोई नहीं है, सब गले तक शराब पीकर मस्त हो रहे हैं। राम, राम, इन मतवालों के दल को लेकर मैं उससे मिलने जाऊँ? यह मुझसे किसी तरह न होगा।
देर होती देखकर रतन विस्मय से बोला, “उस जगह अंधेरे में क्यों खड़े हो रहे हैं बाबूजी- आइए न?”
मैं चटपट बोल उठा, “नहीं रतन, इस समय नहीं - मैं चलता हूँ।”
रतन कुण्ठित होकर बोला, “माँ, किन्तु, राह देखती बैठी हैं...”
“राह देखती हैं तो देखने दे। उन्हें मेरा असंख्य नमस्कार जताकर कहना, कल जाने के पहले मुलाकात होगी - इस समय नहीं। मुझे बड़ी नींद आ रही है रतन, मैं चलता हूँ।” इतना कहकर विस्मित, क्षुब्ध रतन को जवाब देने का अवसर दिए बगैर ही मैं, जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ, उस तरफ से तम्बू की ओर चल दिया।
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