उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
4
मनुष्य के भीतर की वस्तु को पहिचान कर उसके न्याय-विचार का भार अन्तर्यामी भगवान के ऊपर न छोड़कर मनुष्य जब स्वयं उसे अपने ही ऊपर लेकर कहता है 'मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, यह कार्य मेरे द्वारा कदापि न होता, वह काम तो मैं मर जाने पर भी न करता', आदि - तब ये बातें सुनकर मुझे शर्म आए बिना नहीं रहती। और फिर केवल अपने मन के ही सम्बन्ध में नहीं, दूसरों के सम्बन्ध में भी, मैं देखता हूँ, कि मनुष्य के अहंकार का मानो अन्त ही नहीं, है। एक दफे समालोचकों के लेखों को पढ़कर देखे, बिना हँसे रहा ही नहीं जाता। कवि को अतिक्रम करके वे काव्य के मनुष्य को चीन्ह लेते हैं और जोर के साथ कहते हैं, “यह चरित्र किसी तरह भी वैसा नहीं हो सकता - वह चरित्र कभी वैसा नहीं कर सकता,” ऐसी और कितनी ही बातें हैं। लोग वाहवाही देकर कहते हैं, “वाह इसी को तो कहते हैं क्रिटिसिजम! इसी को तो कहते हैं चरित्र-समालोचना! सच, ही तो कहा! अमुक समालोचक के होते हुए चाहे जो कुछ लिख देने से कैसे चल सकता है! देखो, पुस्तक में जो अंटसंट भूलें और भ्रान्तियाँ थीं की सभी किस तरह छान-बीनकर रख दी गयी है!” सो रख देने दो। भूल भला किससे नहीं होती? किन्तु, फिर भी तो मैं अपने जीवन की आलोचना करके - यह सब पढ़कर, उन लोगों की लज्जा के मारे अपना सिर ऊपर नहीं उठा सकता। मन ही मन कहता हूँ, “हाय रे दुर्भाग्य! यह जो कहा जाता है कि मनुष्य की अन्तर की वस्तु अनन्त है सो क्या केवल कहने-भर की बात है! दम्भ प्रकट करने के समय क्या इसकी कानी कौड़ी की भी कीमत नहीं है? तुम्हारे कोटि जन्मों के न जाने कितने असंख्य कोटि अद्भुत व्यापार इस अनन्त में मग्न रह सकते हैं और एकाएक जागरित होकर तुम्हारी बहुज्ञता, तुम्हारा पढ़ना-लिखना, तुम्हारी विद्वता, और तुम्हारे मनुष्य की जाँच करने के क्षुद्र ज्ञान-भण्डार को एक मुहूर्त में चूर्ण कर सकते हैं, यह बात क्या एक दफा भी तुम्हारे मन में नहीं आती - यह भी क्या तुम नहीं समझ सकते कि, यह सीमाहीन आत्मा का आसन है?”
|