उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
यही तो मैंने अन्नदा जीजी में अपनी आँखों देखा है। उनकी उज्ज्वल दिव्य मूर्ति इस समय तक भी तो नहीं भूली; जीजी जब चली गयी तब न जाने कितनी गम्भीर स्तब्ध रात्रियों में आँखों के पानी से मेरा तकिया भीग गया है, और मन ही मन मैंने कहा है कि जीजी, मुझे अपने लिए अब और कुछ सोच नहीं है, तुम्हारे पारस-मणि के स्पर्श से मेरे अन्तर-बाहिर का समस्त लोहा सोना हो गया है। अब कहीं किसी भी तरह की आबोहवा की दुष्टता से जंग लगकर उसके क्षय होने का डर नहीं है; परन्तु कहाँ गयी तुम जीजी? जीजी, और किसी को भी मैं अपने इस सौभाग्य का हिस्सा नहीं दे सका, और कोई भी तुम्हें नहीं देख पाया! अन्यथा तुम्हारा दर्शन पाकर प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति सच्चरित्र साधु हो जाता, इसमें मुझे लेश-भर भी सन्देह नहीं है। यह किस तरह सम्भव हो सकता है, इस बात को लेकर मैं उस समय बच्चों की-सी कल्पनाओं में सारी रात जागकर बिता देता था। कभी मन में आता, कि देवी चौधुरानी1 के समान यदि कहीं से मैं सात घड़े मुहरें पा जाऊँ तो अन्नदा जीजी को एक बड़े भारी सिंहासन पर बैठा दूँ, जंगल काटकर, जगह साफ करके, देश के लोगों को बुलाऊँ और उन्हें उनके सिंहासन के चारों ओर बसा दूँ। कभी सोचता, एक बड़े भारी बजरे में उन्हें विराजमान करके बैंड बजाता हुआ उन्हें देश-विदेश में लिये फिरूँ। इसी तरह न जाने कितने विलक्षण आकाश-कुसुमों की मैं मालाएँ गूँथता रहता, इस समय उन्हें याद करके भी मुझे हँसी आती है। साथ ही आँखों से आँसू भी कुछ कम नहीं गिरते। (“¹ स्व. बंकिमचन्द्र चट्टोपाधयाय के प्रसिद्ध उपन्यास 'देवी चौधुरानी' की मुख्य नायिका।”)
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