उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उस समय मेरे मन के भीतर यह विश्वास हिमाचल के समान दृढ़ होकर बैठ गया था कि मुझे मुग्ध कर सके ऐसी नारी इस लोक में तो निश्चय से नहीं, है-परन्तु परलोक में भी है या नहीं इसकी भी मानो मैं कल्पना नहीं कर सकता था। सोचता था कि जीवन में जब कभी किसी के मुँह से ऐसी कोमल बोली, होठों में ऐसी मधुर हँसी, ललाट पर ऐसा अलौकिक तेज, आँखों में ऐसी सजल करुण दृष्टि पाऊँगा, तभी मैं आँख उठाकर उसकी ओर देखूँगा! जिसे मैं अपना मन दूँगा वह भी मानो ऐसी ही सती साध्वीं होगी; उसके भी प्रत्येक कदम पर मानो ऐसी ही अनिवर्चनीय महिमा फूट उठेगी, इसी तरह वह भी मानो संसार का समस्त सुख-दुख, समस्त अच्छा-बुरा, समस्त धर्म-अधर्म त्याग करके ही मुझे ग्रहण कर सकेगी।
मैं वही तो हूँ! तो भी आज सुबह नींद खुलते ही किसी के मुँह की वाणी ने, किसी के होठों की हँसी ने, किसी के चक्षुओं के जलने, याद आकर, हृदय में थोड़ी-सी पीड़ा उत्पन्न कर दी। मेरी संन्यासिनी जीजी के साथ कहीं किसी भी अंश में उसका बिन्दु मात्र भी सादृश्य था? फिर भी ऐसा ही मालूम हुआ। छ:-सात रोज पहले अन्तर्यामी भगवान भी आकर यदि यह कहते तो, मैं हसकर उड़ा देता और कहता, “अन्तर्यामी इस शुभ कामना के लिए तुम्हें हजारों धन्यवाद! किन्तु तुम अपना काम देखो, मेरी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरे हृदय की कसौटी पर असल सोना कसा जा चुका है, वहाँ अब पीतल की दुकान खोलने से खरीददार नहीं जुटेंगे।”
परन्तु फिर भी खरीददार जुट गया। मेरे अन्तर में जहाँ कि अन्नदा जीजी के आशीर्वाद से खरा सोना भरा पड़ा था, एक अभागा, पीतल का लोभ नहीं सँभाल सका और उसे खरीद बैठा - यह क्या कुछ कम अचरज की बात है!
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