उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“बाबू साहब!” राजा का नौकर आ पहुँचा। शय्या पर मैं सीधा होकर बैठ गया। उसने आदरपूर्वक कहा, “कुमार साहब तथा और भी बहुत से लोग आपकी गत रात्रि की कहानी सुनने के लिए आपके आने की राह देख रहे हैं।”
मैंने पूछा, “उन्हें मालूम कैसे हुआ?” बैरा बोला, “तम्बू के दरबान ने बतलाया है कि आप रात के अन्त में वापिस लौट आए हैं।”
हाथ-मुँह धो कपड़े बदल, जैसे ही मैं बड़े तम्बू के अन्दर गया कि सब लोगों ने एक साथ शोर मचा दिया। एक ही साथ मानो एक लाख प्रश्न हो गये। मैंने देखा कि कल के वे वृद्ध महाशय भी वहाँ हैं और एक तरफ प्यारी भी अपने दल-बल को लेकर चुपचाप बैठी है। रोज के समान आज उससे चार आँखें नहीं हुईं। मानो वह जान-बूझकर ही और किसी तरफ आँखें फिराए बैठी थी।
आकुल सवालों की लहर के शान्त होते ही मैंने जवाब देना शुरू किया। कुमारजी बोले, “धन्य है तुम्हारा साहस, श्रीकान्त। कितनी रात को वहाँ पहुँचे थे?”
“बारह और एक के बीच।”
वृद्ध महाशय बोले, “घोर अमावस्या! साढ़े ग्यारह बजे के बाद अमावस पड़ी थी।”
चारों तरफ से अचरज सूचक ध्वनि उठकर क्रमश: शान्त होते ही कुमारजी ने फिर प्रश्न किया, “उसके बाद क्या देखा?”
मैं बोला, “दूर तक फैले हुए हाड़-पिंजर और खोपड़ियाँ।”
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