उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कुमारजी बोले, “उफ, कैसा भयंकर साहस है! श्मशान के भीतर गये थे या बाहर खड़े रहे थे?”
मैं बोला, “भीतर जाकर एक बालू के ढूह पर जाकर बैठ गया था।”
“उसके बाद- उसके बाद? बैठकर क्या देखा?”
“बालू के टीले साँय-साँय कर रहे हैं।”
“और?”
“काँस के झुरमुट और सेमर के वृक्ष।”
“और?”
“नदी का पानी।”
कुमारजी अधीर होकर बोले, “यह सब तो जानता हूँ जी! पूछता हूँ कि वह सब कुछ...”
मैं हँस पड़ा और बोला, “और दो-एक बड़े चमगीदड़ सिर के ऊपर से उड़कर जाते हुए देखे थे।”
वृद्ध महाशय ने स्वयं उस समय आगे बढ़कर पूछा, “और कुछ नहीं देखा?” मैं बोला, “नहीं।”
उत्तर सुनकर तम्बू-भर के आदमी मानो निराश हो गये। उस समय वृद्ध महाशय एकाएक क्रूद्ध हो उठे, “ऐसा कभी हो नहीं सकता। आप गये ही नहीं।” उनके गुस्से को देखकर मैंने सिर्फ हँस दिया। क्योंकि बात ही गुस्से होने की थी। कुमारजी मेरा हाथ दबाकर मिन्नत भरे स्वर से बोले, “तुम्हें कसम है श्रीकान्त, क्या-क्या देखा, सच-सच कह दो?”
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