उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“सच ही कहता हूँ, कुछ नहीं देखा।”
“कितनी देर ठहरे वहाँ पर?”
“तीनेक घण्टे।”
“अच्छा, देखा नहीं, कुछ सुना भी नहीं?”
“सुना।”
क्षण-भर में ही सबका मुँह उत्साह से प्रदीप्त हो उठा। क्या सुना, उसे सुनने के लिए लोग कुछ और भी आगे सरक आए। तब मैंने कहना शुरू किया कि किस तरह रास्ते के ऊपर एक रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर उड़ गया, किस तरह बच्चे की सी आवाज में एक पक्षी के बच्चे ने सेमर के वृक्ष पर रिरिया-रिरिया कर रोना शुरू कर दिया, किस तरह एकाएक आँधी उठी और मृत मनुष्यों की खोपड़ियाँ दीर्घ श्वास छोड़ने लगीं और सबके अन्त में किस तरह मानो कोई मेरे पीछे खड़ा होकर लगातार बरफ सरीखी ठण्डी साँस दाहिने कान पर छोड़ने लगा। मेरा कथन समाप्त हो गया किन्तु देर तक किसी के मुँह से एक भी शब्द बाहर न निकला। सारा तम्बू मानो सन्न हो रहा। अन्त में वह वृद्ध व्यक्ति एक लम्बी उसास छोड़कर मेरे कन्धों पर एक हाथ रखकर, धीरे-धीरे बोला, “बाबूजी, आप सचमुच ही ब्राह्मण के बच्चे हैं, इसीलिए कल अपनी जान लिये लौट आए। नहीं तो और कोई जिन्दा नहीं लौट सकता था। किन्तु, आज से इस बुङ्ढे की कसम है बाबूजी, फिर कभी ऐसा दु:साहस न कीजिएगा। आपके माँ-बाप के चरणों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम - केवल उन्हीं के पुण्य-प्रताप से आप बच गये हैं।” इतना कहकर उसने झोंक में आकर चट से मेरे पैर छू लिये।
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