उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
यद्यपि युवती स्त्रियों के मन की गतिविधि को लेकर माथापच्ची करना मेरा पेशा नहीं है, और न इसके पहले यह काम मैंने कभी किया ही है, पर मेरे मन के भीतर जो बहुत जन्मों की अखण्ड धारावाहिकता छिपी हुई मौजूद है, उसके बहुदर्शन की अभिज्ञता से रमणी-हृदय का गूढ तात्पर्य स्पष्ट प्रतिभासित हो उठा। वह उसे अपना अपमान समझकर क्षुब्ध नहीं हुआ वरन् उसे प्रणय अभिमान समझकर पुलकित हो उठा। शायद, इसी छिपी हुई धारावाहिकता के गुप्त इशारे से मैंने अपनी श्मशान यात्रा के लिए यहाँ तक के इतिहास में, इस बात का उल्लेख तक नहीं किया कि कल-रात को मुझे श्मशान से लौटा लाने के लिए आदमी भेजे थे और वह स्वयं भी बात पूरी होते ही उसी तरह गुप-चुप बाहर चली गयी थी। इसीलिए है यह अभिमान! कल रात को लौटकर उसे मुलाकात करके मैंने यह नहीं कहा कि वहाँ क्या हुआ था। उससे जिस बात को अकेले बैठकर सुनने का सबसे पहले अधिकार था उसी को आज वह सबसे पीछे बैठकर मानो दैवात् ही सुन सकी है। परन्तु, अभिमान भी इतना मीठा होता है! जीवन में उसके स्वाद को उस दिन सबसे पहले उपलब्ध करके मैं बच्चे की तरह एकान्त में बैठ गया और लगातार चख-चखकर उसका उपभोग करने लगा।
आज दोपहर को मैं सो जाना चाहता था। बिस्तर पर लेटे-लेटे बीच-बीच में तन्द्रा भी आने लगी; परन्तु रतन के आने की आशा बार-बार हिला-हिलाकर उसे तोड़ देने लगी। इस तरह समय तो निकल गया परन्तु रतन नहीं आया! वह आएगा अवश्य, यह विश्वास मेरे दिल में ऐसा दृढ़ हो रहा था कि, जब बिस्तर छोड़कर बाहर आकर मैंने देखा कि सूर्य पश्चिम की ओर ढल पड़ा है, तब मुझे मन ही मन यह निश्चय हो गया कि जब मैं तन्द्रा में पड़ा हुआ था तब रतन, मेरे यहाँ आया है और मुझे निद्रित समझकर लौट गया है। मूर्ख! एक दफे पुकार ही लेता तो क्या हो जाता!
|