उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बैलगाड़ी से उतर पड़ा। उस समय प्रभात हो गया था।
प्यारी ने अनुनय करके कहा, “मेरी और भी एक बात तुम्हें रखनी होगी। घर लौटते ही मुझे एक पत्र लिखना होगा।”
मैंने मंजूर करके प्रस्थान किया। एक दफा भी लौटकर पीछे की ओर नहीं देखा कि वे लोग खड़े हैं अथवा आगे चल दिए हैं। परन्तु बड़ी दूर तक अनुभव करता रहा कि उन दो चक्षुओं की सजल-करुण दृष्टि मेरी पीठ के ऊपर बार-बार पछाड़ खा-खाकर गिर रही है।
अड्डे पर पहुँचते प्राय: आठ बज गये। रास्ते के किनारे, प्यारी के उखड़े हुए तम्बू की, बिखरी हुई परित्यक्त वस्तुओं पर मेरी नजर पड़ते ही एक निष्फल क्षोभ छाती में मानो हाहाकार कर उठा। मुँह फेरकर जल्दी-जल्दी पैर रखते हुए मैंने अपने तम्बू में प्रवेश किया।
पुरुषोत्तम ने पूछा, “आप बड़े भोर ही घूमने बाहर चले गये थे?”
हाँ-ना किसी तरह का जवाब दिए बगैर ही मैं बिस्तर पर आँखें बन्द करके लेट रहा।
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प्यारी के निकट जो वादा किया था उसकी मैंने पूरी रक्षा की, घर लौटते ही मैंने यह खबर जताकर उसे एक चिट्ठी लिख दी। जवाब भी जल्द ही आ गया। मैं एक बात पर बराबर ध्यान दे रहा था कि किसी भी दिन प्यारी ने मुझे अपने पटने के मकान के लिए, जोर डालना तो दूर रहा, साधारण तौर से मौखिक निमन्त्रण भी नहीं दिया। इस पत्र में भी इसका कोई इशारा न था। सिर्फ नीचे की ओर एक निवेदन था, जिसे कि आज भी मैं नहीं भूला हूँ, “सुख के दिनों में नहीं, तो दु:ख के दिनों में मुझे न भूलिए - यही मेरी प्रार्थना है।”
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