उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
दिन कटने लगे। प्यारी की स्मृति धुँधली होकर प्राय: विलीन हो गयी। परन्तु एक अचरज-भरी बात बीच-बीच में मेरी दृष्टि में पड़ने लगी कि अबकी दफा शिकार से वापिस लौटने के बाद से मेरा मन मानो कुछ अनमना-सा रहने लगा है, जैसे मानो एक अभाव की वेदना, दबी हुई सर्दी के समान, शरीर के रोम-रोम में परिव्याप्त हो गयी है। बिस्तरों पर जाते ही वह चुभने लगती है।
याद आता है कि वह होली की रात थी। माथे पर से अबीर का चूर्ण साबुन से धोकर तब तक साफ नहीं किया था। क्लान्त विवश शरीर से बिस्तर पर पड़ा था। पास की खिड़की खुली हुई थी; उसी में से सामने के पीपल के पत्तों की फाँकों में से आकाशव्यापी ज्योत्स्ना की ओर ताक रहा था। इतना ही याद आ रहा है। परन्तु क्यों दरवाजा खोलकर स्टेशन की ओर चल दिया और पटने का टिकिट कटाकर ट्रेन पर चढ़ गया - वह याद नहीं आता। रात बीत गयी। परन्तु दिन को जैसे ही मैंने सुना कि 'बाढ़' स्टेशन है और पटना आने में अब अधिक बिलम्ब नहीं है, वैसे ही एकाएक वहीं उतर पड़ा। जेब में हाथ डालकर देखा तो घबड़ाने का कोई कारण नज़र नहीं आधा-एक दुअन्नी और दसेक पैसे उस समय भी मौजूद थे। खुश होकर दुकान की खोज में स्टेशन से बाहर हो गया। दुकान मिल गयी। चिउड़ा, दही और शक्कर के संयोग से अत्युत्कृष्ट भोजन सम्पन्न करने में करीब आधा खर्च हो गया। होने दो, जीवन में इस तरह कितना ही खर्च हुआ करता है- इसके लिए रंज करना कायरता है।
गाँव घूमने के लिए बाहर हुआ। घण्टे-भर भी न घूमा था कि अनुभव हुआ, इस गाँव का दही और चिउड़ा जिस परिमाण में उपादेय है उसी परिमाण में पीने का पानी निकृष्ट है। मेरे इतने प्रचुर भोजन को इतने से समय में इस तरह पचाकर उसने नष्ट कर दिया कि, ऐसा मालूम होने लगा कि, मानो दस-बीस दिन से अन्न का दाना भी मुँह में नहीं पड़ा है! ऐसे खराब स्थान में वास करना एक मुहूर्त-भर के लिए भी उचित नहीं है, ऐसा सोचकर स्थान त्याग करने की कल्पना कर ही रहा था कि- देखता हूँ, पास में ही एक आम के बगीचे के भीतर से धुआँ निकल रहा है।
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