उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कुछ ही देर में सामने और पीछे सब कुछ सघन अन्धकार से लिप-पुतकर एकाकार हो गया। रह गयी दाहिनी ओर बाईं ओर दोनों सीमाओं तक फैली हुई विपुल उद्दाम जल की धारा, और उसके ऊपर खूब तेजी से चलने वाली वह छोटी-सी नाव और उस पर किशोरवय के दो बालक। यद्यपि प्रकृति देवी के अपरिमेय गम्भीर रूप को समझने की उम्र वह नहीं थी, किन्तु उसे मैं आज भी नहीं भूल सका हूँ। वायुहीन, निष्कम्प, निस्तब्ध, नि:संग, निशीथनी की मानो वह एक विराट काली मूर्ति थी। उसके निबिड़ काले बालों से आकाश और पृथ्वी ढँक गयी थी और उस सूची-भेद्य अन्धकार को विदीर्ण करके, कराल दाढ़ों की रेखा के समान, उस दिगन्त-विस्तृत तीव्र जलधारा से मानो एक तरह की अद्भुत निश्चल द्युति, निष्ठुर दबी हुई हँसी के समान, बिखर रही थी। आसपास और सामने, कहीं तो जल की उन्मत्त धारा तल देश में जाकर तथा ऊपर को उठकर फट पड़ती थी, कहीं परस्पर के प्रतिकूल गति संघात से आवर्तों की रचना करती हुई चक्कर खाती थी, और कहीं अप्रतिहित जल-प्रवाह पागल की तरह दौड़ा जा रहा था।
हमारी डोंगी एक कोने से दूसरे कोने की ओर जा रही है, बस इतना ही मालूम हो रहा था। किन्तु उस पार के उस दुर्भेद्य अन्धकार में, किस जगह लक्ष्य स्थिर करके, इन्द्र हाल को पकड़े चुपचाप बैठा है, यह मैं कुछ न जानता था। इस उम्र में वह कितना पक्का माझी बन गया था, इसकी मुझे उस समय कल्पना भी न थी। एकाएक वह बोला-
“क्यों रे श्रीकांत, डर लगता है क्या?”
मैं बोला, “नहीं।”
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