उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र खुश होकर बोला, “यही तो चाहिए। जब तैरना आता है तब फिर डर किस बात का?” प्रत्युत्तर में मैंने एक छोटे-से नि:श्वास को दबा दिया कि कहीं वह सुन न ले। किन्तु, ऐसी गहरी अंधेरी रात में, ऐसी जल-राशि और ऐसे दुर्जय प्रवाह में, तैरना जानने और न जानने में क्या अन्तर है, सो मेरी समझ में न आ सका। उसने भी और कोई बात नहीं कही। बहुत देर तक इसी तरह चलते रहने के बाद कहीं से कुछ आवाज-सी आई, जो कि अस्फुट और क्षीण थी, किन्तु नौका जैसे-जैसे अग्रसर होने लगी वैसे ही वैसे वह आवाज भी स्पष्ट और प्रबल होने लगी। मानो लोगों का बहुत दूर से आता हुआ क्रुद्ध आह्नान हो - मानो कितने ही बाधा-विघ्नों को लाँघकर, हटाकर, वह आह्नान हमारे कानों तक आ पहुँचा हो। वह आह्नान थका हुआ-सा था, फिर भी न उसमें विराम था और न विच्छेद ही - मानो उनका क्रोध न कम होता था न बढ़ता ही था और न थमना ही चाहता था। बीच-बीच में एकाध दफा 'भप्-भप्' शब्द भी होता थ। मैंने पूछा, “इन्द्र यह काहे की आवाज सुन पड़ती है?” उसने नौका का मुँह कुछ और सीधा करके कहा, “जल के प्रवाह से उस पार के कगारे, टूट-टूटकर गिर रहे हैं, उसी का यह शब्द है।”
मैंने पूछा, “कितने बड़े कगारे हैं? और कैसा प्रवाह है?”
“बड़ा भयानक प्रवाह है। ओह! तभी तो - कल पानी बरस गया है,- आज उसके तले से न गया जाएगा। कहीं एक भी कगारा गिर पड़ा तो नाव और हम सभी पिस जाँयगे। अच्छा, तू तो डाँड़ चला सकता है न?”
“चला सकता हूँ।”
“तो चला।”
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