उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
खैर, जाने दो इस बात को। घोर जल-कल्लोल क्रमश: पास में आता-जाता है, इस बात को मैं जान रहा था; इसलिए और कोई सवाल किये बगैर मैंने समझ लिया कि इस जंगल के बीच में ही वह भीषण प्रवाह प्रवाहित हो रहा है जिसको स्टीमर भी पार नहीं कर पाते। मैं खूब अनुभव कर रहा था कि पानी का वेग बढ़ रहा है और धूसर वर्ण का फेन का पुंज विस्तृत रेत-राशि का भ्रम उत्पन्न कर रहा है। इन्द्र नौका पर चढ़ आया और डाँड़ को हाथ में लेकर सामने के उद्दाम स्रोत का सामना करने को तैयार हो बैठा। वह बोला, “अब कोई डर नहीं है, हम बड़ी गंगा में आ पहुँचे हैं।” मैंने मन ही मन कहा - अब, डर नहीं है तो अच्छा है। किन्तु डर तुम्हें काहे का है सो तो मैं समझा ही नहीं। क्षण-भर बाद ही नौका एक बार मानो सिर से पैर तक काँप उठी और पलक मारने के पहले ही मैंने देखा कि वह बड़ी गंगा के स्रोत में पड़कर उल्का के वेग से दौड़ी जा रही है।
उस समय छिन्न बादलों की आड़ में मालूम हुआ, मानो चन्द्रमा उदय हो रहा है क्योंकि जैसे अन्धकार में हम अभी तक यात्रा करते आ रहे थे वैसा अन्धकार अब नहीं रहा था। अब बहुत दूर तक, चाहे साफ भले ही न हो, दिखाई देने लगा था। मैंने देखा जंगली झाऊ और मकई-जुआरवाला टीला दाहिनी ओर छोड़कर हमारी नाव सीधी चली जा रही है।
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“बहुत जोर से नींद आ रही है इन्द्र, अब घर लौट चलो भाई!” इन्द्र ने कुछ हँसकर ठीक स्त्री-सुलभ स्नेहार्द्र कोमल स्वर में कहा, “नींद आने की तो बात ही है भइया, पर क्या किया जाए श्रीकांत आज तो कुछ देर होगी ही - अभी बहुत-सा काम पड़ा है। अच्छा एक काम करो न, इसी जगह थोड़ा-सा लेट लो।”
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