उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
भागना शुरू करके मैंने पूछा, “और तुम?” उसने रूखाई से जवाब दिया, “अरे तू तो भाग-गधे कहीं के।”
गधा होऊँ-या चाहे जो होऊँ, मुझे खूब याद है, मैंने हठात् लौटकर और खड़े होकर कहा, “नहीं, मैं नहीं भागूँगा।”
बचपन में मार-पीट किसने न की होगी? किन्तु, मैं था गाँव का लड़का - दो-तीन महीने पहले ही लिखने-पढ़ने के लिए शहर में बुआजी के यहाँ आया था। इसके पहले, इस प्रकार दल बाँधकर, न तो मैंने मार-पीट ही की थी, और न किसी दिन इस तरह दो पूरे छतरी के बेंट ही मेरी पीठ के ऊपर टूटे थे। फिर भी मैं अकेला भाग न सका। इन्द्र ने एक बार मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, “नहीं भागेगा, तो क्या खड़े-खड़े मार खाएगा? देख, उस तरफ से वे लोग आ रहे हैं - अच्छा, तो चल, खूब कसकर दौड़ें।”
यह काम तो मैं खूब कर सकता था। दौड़ते-दौड़ते जब हम लोग बड़ी सड़क पर पहुँचे, तब शाम हो गयी थी। दुकानों में रोशनी हो गयी थी और रास्ते पर म्युनिसिपल के केरॉसिन के लैम्प, लोहे के खम्भों पर, एक यहाँ और दूसरा वहाँ, जल रहे थे। आँखों में जोर होने पर, ऐसा नहीं है कि एक के पास खड़े होने पर दूसरा दिखाई न पड़ता। आततायियों की अब कोई आशंका नहीं थी। इन्द्र अत्यन्त स्वाभाविक सहज स्वर से बात कर रहा था। मेरा गला सूख रहा था, परन्तु आश्चर्य है कि इन्द्र रत्ती-भर भी नहीं हाँफा था। मानो कुछ हुआ ही न हो - न मारा हो, न मार खाई हो और न दौड़ा ही हो। जैसे कुछ हुआ ही न हो, ऐसे भाव से उसने पूछा, “तेरा नाम क्या है रे?”
“श्रीकांत।”
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