उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“श्रीकांत? अच्छा।” कहकर उसने अपनी जेब से मुट्ठी-भर सूखी पत्ती बाहर निकाली। उसमें से कुछ तो उसने खा ली और कुछ मेरे हाथ में देकर कहा, “आज खूब ठोका सालों को, ले खा।”
“क्या है यह?”
“बूटी।”
मैंने अत्यन्त विस्मित होकर कहा, “भाँग? यह तो मैं नहीं खाता।”
उसने मुझसे भी अधिक विस्मित होकर कहा, “खाता नहीं? कहाँ का गधा है रे। खूब नशा होगा - खा, चबाकर लील जा।”
नशे की चीज का मजा उस समय ज्ञात नहीं था; इसलिए सिर हिलाकर मैंने उसे वापस कर दिया। वह उसे भी चबाकर निगल गया।
“अच्छा, तो फिर सिगरेट पी।” यह कहकर उसने जेब से दो सिगरेट और दियासलाई बाहर निकाली। एक तो उसने मेरे हाथ में दे दी और दूसरी अपने हाथ में रखी। इसके बाद, वह अपनी दोनों हथेलियों को एक विचित्र प्रकार से जुटाकर, उस सिगरेट को चिलम बनाकर जोर से खींचने लगा। बाप रे,- कैसे जोर से दम खींचा कि एक ही दम में सिगरेट की आग सिरे से चलकर नीचे उतर आई! लोग चारों तरफ खड़े थे- मैं बहुत ही डर गया। मैंने डरते हुए पूछा, “पीते हुए यदि कोई देख ले तो?”
“देख ले तो क्या? सभी जानते हैं।” यह कहकर स्वच्छन्दता से सिगरेट पीता हुआ वह चौराहे पर मुड़ा और मेरे मन पर एक गहरी छाप लगाकर, एक ओर को चल दिया।
आज उस दिन की बहुत-सी बातें याद आती हैं। सिर्फ इतना ही याद नहीं आता, कि उस अद्भुत बालक के प्रति, उस दिन मुझे प्रेम उत्पन्न हुआ था, अथवा यों खुले आम भाँग और तमाखू पीने के कारण, मन ही मन घृणा। इस घटना के बाद करीब एक महीना बीत गया। एक दिन रात्रि जितनी उष्ण थी उतनी ही अंधेरी। कहीं वृक्ष की एक पत्ती तक न हिलती थी। सब छत पर सोए हुए थे। बारह बज चुके थे, परन्तु किसी की भी आँखों में नींद का नाम न था।
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