उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने कोई बात नहीं कही, क्योंकि मेरा मन उस समय उसके विरुद्ध घृणा के भाव से और एक प्रकार के क्षोभ से लबालब भर गया था। किन्तु यह क्या! अभी-अभी ही तो उसे चन्द्रमा के प्रकाश में छाया डालते हुए, लौटते देखकर अधीर आनन्द से दौड़कर छाती से लगा लेने के लिए उन्मुख हो उठा था!
हाँ, सो मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। तनिक-सा दोष देखते ही, कुछ क्षणपूर्व की सभी बातें भूलते उसे कितनी-सी देर लगती है! राम! राम! राम! उसने इस तरह रुपये प्राप्त किये! अब तक मछली चुराने का यह व्यापार मेरे मन में, बहुत स्पष्ट तौर से, चोरी के रूप में शायद स्थान न पा सका था! क्योंकि लड़कपन से ही, रुपये पैसों की चोरी ही मानो वास्तविक चोरी है-और सब, अनीती भले ही हो किन्तु, न जाने क्यों ठीक-ठीक चोरी नहीं है- इस तरह की अद्भुत धारणा प्राय: सभी लड़कों की होती है। मेरी भी यही धारणा थी। ऐसा न होता तो इस 'खन्' शब्द के कान में जाते ही इतने समय का इतना वीरत्व, इतना पौरुष, सब कुछ क्षण-भर में इस प्रकार शुष्क तृण के समान न झड़ जाता। यदि उन मच्छों को गंगा में फेंक दिया जाता- अथवा और कुछ किया जाता- केवल रुपयों के साथ उनका संसर्ग घटित न होता, फिर भी हमारी उस मत्स्य-संग्रह-यात्रा को कोई 'चोरी' कहकर पुकारता, तो शायद गुस्से में आकर मैं उसका सिर फोड़ देता और समझता कि उसने वास्तव में जो सजा मिलनी चाहिए वही पाई है- किन्तु राम! राम! यह क्या! यह काम तो जेलखाने के कैदी किया करते हैं!
इन्द्र ने बात शुरू की पूछा, “तुझे दूसरा भी डर न लगा, क्यों रे श्रीकांत?”
मैंने संक्षेप में जवाब दिया, “नहीं!”
इन्द्र बोला, “किन्तु तेरे सिवा वहाँ और कोई बैठा न रह सकता, यह जानता है तू? तुझे मैं खूब प्यार करता हूँ- मेरा ऐसा दोस्त और कोई नहीं है। मैं अब जब आऊँगा, सिर्फ तुझे ही लाऊँगा। क्यों?”
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