उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने जवाब नहीं दिया। किन्तु इसी समय उसके मुख पर तुरंत के मेघ मुक्त चन्द्रमा का जो प्रकाश पड़ा, उससे मुख पर जो कुछ दिखाई दिया उससे एकाएक मैं अपना इतनी देर का सब क्रोध, क्षोभ भूल गया। मैंने पूछा, “अच्छा इन्द्र, तुमने कभी 'उन सब को1 देखा है?” (1. 'उन सब' से तात्पर्य भूतों का है। बंगाल में प्रवाद है कि अकेले में भूत मछली माँगने आते हैं। )
“किन सबको?”
“वही जो मच्छ माँगने आते हैं?”
“नहीं भाई, देखा तो नहीं है, लेकिन लोग जो कहते हैं वह सुना है।”
“अच्छा तुम यहाँ अकेले आ सकते हो?”
इन्द्र हँसा, बोला, “मैं तो अकेला ही आया करता हूँ।”
“डर नहीं लगता?”
“नहीं राम का नाम लेता हूँ, फिर वे किसी तरह नहीं आ सकते।”
कुछ देर रुककर फिर कहना शुरू किया, “राम-नाम क्या कोई साधारण चीज है रे? यदि तू राम का नाम लेते-लेते साँप के मुँह में चला जाए, तो तेरा कुछ न बिगडेग़ा। देखेगा, कि मारे डर के सभी रास्ता छोड़कर भागने लगे हैं। किन्तु डरने से काम नहीं चलता। तब तो वे जान जाते हैं कि, यह सिर्फ चालाकी कर रहा है-वे सब अन्तर्यामी जो हैं!”
रेती का किनारा खत्म होते ही कंकड़ों का किनारा शुरू हो गया। उस पार की अपेक्षा इस पार पानी का बहाव बहुत कम था। बल्कि यहाँ तो मालूम हुआ मानो बहाव उलटी तरफ जा रहा है। इन्द्र ने लग्गी उठाकर कर्ण (पतवार) हाथ में लेते हुए कहा, “वह जो सामने वन सरीखा दीख पड़ता है, उसी में से होकर हमें जाना है। यहाँ जरा मैं उतरूँगा। जाऊँगा और आ जाऊँगा। देर न लगेगी। क्यों उतर जाऊँ?”
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