उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र बोला, “यह जो बड़का वृक्ष है, उसके पास में ही एक छोटा-सा घाट है।”
कुछ देर से न जाने कैसी दुर्गन्ध बीच-बीच में हवा के साथ नाक तक आ रही थी। एकाएक एक हवा के झोंके के साथ वह दुर्गन्ध इतनी निकट होकर नाक में लगी कि असह्य हो गयी। जितना ही आगे बढ़ते थे, उतनी ही वह बढ़ती थी। नाक पर कपड़ा दबाते हुए मैं बोला, “निश्चय से कुछ सड़ गया है, इन्द्र।”
इन्द्र बोला, “मुर्दे सड़ गये हैं। आजकल भयानक कालरा जो फैल रहा है। सभी तो लाशों को जला पाते नहीं, मुँह पर जरा आग छुआकर छोड़कर चले जाते हैं। सियार और कुत्ते उन्हें खाते हैं - और वे सड़ती हैं। उन्हीं की तो यह इतनी गन्ध है।”
“लाशों को किस जगह फेंक जाते हैं, भइया?”
“वहाँ से लेकर यहाँ तक - सब ही तो श्मशान हैं। जहाँ चाहें फेंक देते हैं और इस बड़के नीचे के घाट पर स्नान करके घर चले जाते हैं। अरे दुर! डर क्या है रे! वे सियार-सियार आपस में लड़ रहे हैं। अच्छा, आ-आ, मेरे पास आकर बैठ।”
“मेरे गले से आवाज न निकलती थी - किसी तरह मैं घिसटकर उसकी गोद के निकट जाकर बैठ गया। पल-भर के लिए मुझे स्पर्श करके और हँसकर वह बोला, “डर क्या है श्रीकांत, कितनी दफे रात को मैं इस रास्ते आया-गया हूँ। तीन बार राम का नाम लेने से फिर किसकी ताकत है जो पास में फटके?”
उसे स्पर्श करके मानो मेरी देह में जरा चेतना आई। मैंने अस्फुट स्वर में कहा, “नहीं भाई, तुम्हारे दोनों पैर पड़ता हूँ, यहाँ पर कहीं मत उतरो- सीधे ही चले चलो।”
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