उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उसने फिर मेरे कन्धों पर हाथ रखकर कहा, “नहीं श्रीकांत, एक दफे जाना ही पड़ेगा। यह रुपये दिए बिना काम न चलेगा- वे बैठे राह देख रहे होंगे- मैं तीन दिन से नहीं आ पाया।”
“रुपये कल न दे देना भाई!”
“नहीं भाई, ऐसी बात न कर। मेरे साथ तू भी चल - किन्तु किसी से यह बात कहना मत।”
मैं धीरे से 'ना' कहकर उसे उसी तरह स्पर्श किये हुए, पत्थर की नाईं बैठा रहा। गला सूखकर काठ हो गया था। किन्तु हाथ बढ़ाकर पानी पी लूँ, या हिलने-डोलने की कोई चेष्टा करूँ, यह शक्ति ही नहीं रही थी।
पेड़ों की छाया के बीच में आ पड़ने से पास ही वह घाट दीख पड़ा। जहाँ हमें नीचे उतरना था वह स्थान, ऊपर पेड़ वगैरह न होने से, म्लान ज्योत्सना के प्रकाश में भी खूब प्रकाशमान हो रहा था- यह देखकर इतने दु:ख में भी मुझे आराम मिला। घाट के कंकड़ों में जाकर डोंगी धक्का न खा जाए, इसलिए इन्द्र पहले से ही उतरने के लिए प्रस्तुत होकर डोंगी के मुँह के पास तक खिसक आया था। किनारे लगते न लगते वह उस पर से फाँद पड़ा; पर फाँदते ही भयभीत स्वर से 'उफ' कर उठा। मैं उसके पीछे ही था, इसलिए दोनों की नजर उस वस्तु पर प्राय: एक ही साथ पड़ी। उस समय वह नीचे था और मैं नौका के ऊपर।
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