उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
अव्वल तो मैं इस पृथ्वी के शिरोभूत हिन्दू-घर में वशिष्ठ इत्यादि के पवित्र पूज्य रक्त का वंशधर होकर जन्मा, इसलिए, जन्मगत संस्कारों के वश मैंने सीख रक्खा था कि मृत देह को स्पर्श करना भी एक भीषण कठिन व्यापार है। दूसरे इसमें न जाने कितने शास्त्रीय विधि-निषेधों की बाधाएँ हैं और कितने तरह-तरह के कर्म-काण्डों का घटाटोप है। इसके सिवा यह किस रोग से मरा है, किसका लड़का है, किस जाति का है- आदि कुछ न जानते हुए और मरने के बाद यह ठीक तौर से प्रायश्चित करके घर से बाहर हुआ था या नहीं, इसका पता लगाए बिना ही इसे स्पर्श किस तरह किया जा सकता है?
कुण्ठित होकर जैसे ही मैंने पूछा, “किस जाति का मुर्दा है और क्या तुम इसे छुओगे?” कि इन्द्र ने आगे बढ़कर एक हाथ उसकी गर्दन के नीचे और दूसरा हाथ घुटनों के नीचे देकर उसे सूखे तिनकों के समान उठा लिया और कहा, “नहीं तो बेचारे को सियार नोच-नोचकर न खा जाँयगे? अहा, इसके मुँह से तो अभी तक औषधियों की गन्ध आ रही है रे!” यह कहते-कहते उसने नौका के उसी तख्त पर, जिस पर कि पहले मैं सोया था, उसे सुला दिया और नाव को ठेलकर स्वयं भी चढ़ गया। बोला, “मुर्दे की क्या जात होती है रे?” मैंने तर्क किया, “क्यों नहीं होती?”
इन्द्र बोला, “अरे यह तो मुर्दा है! मरे हुए की जात क्या? यह तो वैसा ही है जैसे हमारी यह डोंगी- इसकी भला क्या जात है? आम या जामुन जिस कभी भी काठ की बनी हो- अब तो इसे 'डोंगी' छोड़ कोई भी नहीं कहेगा कि यह आम है या जामुन। समझा कि नहीं? यह भी उसी तरह है।”
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