उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
अब मालूम होता है कि यह दृष्टान्त निरे बच्चों का सा था- किन्तु अन्तर में यह भी तो अस्वीकार करते नहीं बनता कि यहीं कहीं, इसी के बीच, एक अति तीक्ष्ण सत्य अपने आपको छुपाए हुए बैठा है। बीच-बीच में ऐसी ही खरी बातें वह कह जाया करता था। इसीलिए, मैंने अनेक दफे सोचा है कि इस उम्र में, किसी के पास कुछ भी शिक्षा पाए बगैर, बल्कि प्रचलित शिक्षा-संस्कारों को अतिक्रम करके - इन सब तत्वों को उसने पाया कहाँ? किन्तु अब ऐसा जान पड़ता है कि उम्र बढ़ने के साथ मानो मैंने इसका उत्तर भी पा लिया है। कपट तो मानो इन्द्र में था ही नहीं। उद्देश्य को गुप्त रखकर तो वह कोई काम करना जानता ही न था। इसलिए मैं समझता हूँ, उसके हृदय का वह व्यक्तिगत विच्छिन्न सत्य किसी अज्ञात नियम के वशवर्ती होकर, उस विश्वव्यापी अविच्छिन्न निखिल सत्य का साक्षात् करके, अनायास ही, बहुत ही, सहज में, उसे अपने आप में आकर्षित कर आत्मसात् कर सकता था। उसकी शुद्ध सरल बुद्धि, पक्के उस्ताद की उम्मीदवारी किये बगैर ही, समस्त व्यापार को ठीक-ठीक अच्छी तरह जान लेती थी। वास्तविक, अकपट सहज बुद्धि ही तो संसार में परम और चरम बुद्धि है। इसके ऊपर और कुछ भी नहीं है। अच्छी तरह से देखने पर 'मिथ्या' नाम की किसी भी वस्तु का अस्तित्व इस विश्व-ब्रह्माण्ड में नजर नहीं पड़ता। 'मिथ्या' तो सिर्फ मनुष्य के मानने का और एक फलमात्र है। सोने को पीतल मानना भी मिथ्या है और मनाना भी - यह मैं जानता हूँ। परन्तु इससे सोने का अथवा पीतल का क्या आता-जाता है। तुम्हारी जो इच्छा हो सो उसे मानो, वह तो जो कुछ है, सो ही रहेगा।
|