उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
सोना समझकर उसे सन्दूक में बन्द करके रखने से उसके वास्तविक मूल्य में वृद्धि नहीं होती, और पीतल कहकर बाहर फेंक देने से उसका मूल्य नहीं घटता। उस दिन भी वह पीतल था और आज भी पीतल है। तुम्हारे 'मिथ्या' के लिए तुम्हें छोड़कर न और कोई उत्तरदायी है; और न कोई भ्रूक्षेप ही करता है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड का समस्त ही परिपूर्ण सत्य है। मिथ्या का अस्तित्व यदि कहीं है तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर और कहीं नहीं है। इसलिए इन्द्र ने इस असत्य को, अपने अन्तर में जाने या अनजाने में, किसी दिन जब स्थान नहीं दिया तब यदि उसकी विशुद्ध बुद्धि मंगल और सत्य को ही प्राप्त करती है, तो इसमें विचित्र ही क्या हुआ?
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