उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
किन्तु यह बात उसके लिए विचित्र न होने पर भी, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि किसी के लिए भी विचित्र नहीं है। ठीक इसी बहाने, मैंने अपने जीवन में ही जो इसका प्रमाण पाया है, उसे कह देने का लोभ मैं यहाँ संवरण नहीं कर सकता।
उक्त घटना के 10-11 वर्ष बाद एकाएक एक दिन शाम के वक्त यह संवाद मिला कि एक वृद्धा ब्राह्मणी उस मुहल्ले में सुबह से मरी पड़ी है - किसी तरह भी उसके क्रिया-कर्म के लिए लोग नहीं जुटते। न जुटने का हेतु यह है कि वह काशी-यात्रा से लौटते समय रास्ते में रोग-ग्रस्त हो गयी, और उस शहर में, रेल पर से उतरकर सामान्य परिचय के सहारे जिनके घर आकर, उसने आश्रय ग्रहण किया, और दो रात रहकर आज सुबह प्राण-त्याग किया, वे महाशय विलायत से लौटे हुए थे और बिरादरी से अलग थे। वृद्धा का यही अपराध था कि उसे नितान्त निरुपाय अवस्था में इस 'बिरादरी से खारिज' घर में मरना पड़ा।
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