उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
जाने दो, क्या कह रहा था और क्या बात बीच में आ पड़ी। किन्तु, वह चाहे जो हो मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि जो लोग जानते हैं वे, इस नाम-धाम-हीन विवरण में से, पूरा सत्य प्राप्त कर लेंगे। मेरे कहने का मूल विषय यह है कि इन्द्र ने इस उम्र में अपने अन्तर के मध्य में जिस सत्य का साक्षात् कर लिया था, इतने बड़े-बड़े पंच सरदार, इतनी बड़ी उम्र तक भी, उसका कोई तत्व न पा सके थे; और डॉक्टर साहब यदि उस दिन इस प्रकार उनके शास्त्र-ज्ञान की चिकित्सा न कर देते, तो कभी उनकी यह व्याधि अच्छी होती या नहीं, सो जगदीश्वर ही जाने।
टीले पर आकर, आधे डूबे जंगली झाऊ के अन्धकार में, जल के ऊपर, उस अपरिचित शिशु की देह को, इन्द्र ने जब अपूर्व ममता के साथ रख दिया तब रात्रि अधिक नहीं थी। कुछ देर तक वह उस शव की ओर माथा झुकाए रहा और अन्त में जब उसने मुँह उठाकर देखा, तब धुँधली चाँदनी में उसका मुख जितना कुछ दिखाई दिया वह मलिन था और उसके सूखे मुँह पर ठीक वैसा ही भाव प्रकट हो रहा था जैसे कि कोई कान उठाकर किसी की राह देख रहा हो।
मैं बोला, “इन्द्र, अब चलो।”
इन्द्र अन्यमनस्क भाव से बोला, “कहाँ?”
“अभी जहाँ चलने के लिए तुमने कहा था।”
“रहने दो, आज नहीं जाऊँगा।”
मैं खुश होकर बोला, “ठीक, यही अच्छा है भाई-चलो, घर चलें।”
प्रत्युत्तर में इन्द्र मेरे मुँह की ओर देखकर बोला, “हाँ रे श्रीकांत, मरने पर मनुष्य का क्या होता है, जानता है?”
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