उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने तुरन्त ही जवाब दिया, “नहीं भाई, नहीं जानता; अब तो तुम घर चलो। वे सब स्वर्ग चले जाते हैं, भइया, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, तुम मुझे मेरे घर पहुँचा आओ।”
इन्द्र ने मानो सुना ही नहीं, और कहा, “सभी लोग तो स्वर्ग जा नहीं सकते। इसके सिवाय, कुछ समय तक तो सभी को यहाँ रहना पड़ता है। देखो, मैंने जब उसको जल के ऊपर सुला दिया था, तब उसने धीरे से साफ-साफ कहा था, 'भइया'।” मैं काँपते हुए स्वर से रोते हुए बोल उठा, “क्यों मुझे डराते हो भाई, मैं बेहोश हो जाऊँगा।” इन्द्र ने न तो कुछ कहा और न अभय ही दिया - धीरे से डाँड़ को हाथ में लेकर उसने नाव को झाऊ-वन में से बाहर कर लिया और फिर सीधा चलाने लगा। मिनट-दो मिनट चुप रहकर उसने गम्भीर मृदु स्वर से कहा, “श्रीकांत मन ही मन 'राम' का नाम ले, 'वह' नौका छोड़कर नहीं गया है - हमारे पीछे ही बैठा है!”
उसके बाद मैं उसी जगह मुँह ढँककर औंधा हो गया था। फिर मुझे कुछ सुध नहीं रही। जब आँखें खोलीं तब अन्धकार नहीं था - नाव किनारे लगी हुई थी। इन्द्र मेरे पैरों के पास बैठा था; बोला, “अब थोड़ा चलना होगा, श्रीकांत"
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