उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
ऐसा ही मूल्य होता है, मनुष्य की स्वाधीनता का। व्यक्तिगत न्याय अधिकारों को प्राप्त करने का ऐसा ही आनन्द होता है। आज मुझे बार-बार खयाल आता है कि बच्चों के निकट भी उसकी अमूल्यता बिन्दुभर भी कम नहीं है। मँझले भइया, बड़े होने के कारण, स्वेच्छाचार से, अपने से छोटों के जिन समस्त अधिकारों को ग्रास कर बैठे थे, उन्हें फिर से प्राप्त करने के सौभाग्य लाभ से छोटे भाई ने अपनी प्राणों से भी प्रिय वस्तु बिना संकोच के दे डाली। दरअसल मँझले भइया के अत्याचारों की सीमा न थी। रविवार को कड़ी-दुपहरी में एक मील का रास्ता नापकर, उनके ताश खेलनेवाले दोस्तों को बुलाने जाना पड़ता था। गर्मी की छुट्टियों में, दिन में जब तक वे सोते रहते थे तब तक पंखा झलना पड़ता था। सर्दी के दिनों में, जब वे लिहाफ के भीतर हाथ-पैर छिपाकर कछुए की तरह बैठे किताब पढ़ते थे, तब हमें बैठे-बैठे उनकी किताब के पन्ने पलट देने होते थे- यही सब उनके अत्याचार थे। और फिर 'न' कहने का भी कोई उपाय नहीं था। किसी के निकट शिकायत करने की भी ताब नहीं थी। घुणाक्षर-न्याय से भी यदि वे जान पाते तो हुक्म दे बैठते, “केशव, जा तो अपनी जाग्रफी ले आ, देखूँ तुझे पुराना सबक याद है कि नहीं। जतीन, जा तो एक अच्छी-सी झाऊ की छड़ी तोड़ ला।” अर्थात् पिटना अनिवार्य था, अतएव आनन्द की मात्रा में इन लोगों में यदि प्रतिस्पर्धा हो रही थी तो इसमें अचरज की बात ही क्या थी?
किन्तु आनन्द कितना ही क्यों न हो, अन्त में उसे स्थगित रखना आवश्यक हो गया; क्योंकि स्कूल का समय हो रहा था। मुझे तो ज्वर था, इसलिए कहीं जाना न था।
याद आता है कि उस रात को बुखार तेज हो गया और फिर, 7-8 दिन तक खाट में ही पड़े रहना पड़ा!
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