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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


पाँचेक मिनट के बाद खट-से साँकल खोलकर छोटा भाई हाँफता-हाँफता आया और मेरे बिछौने पर आकर पट पड़ गया। आनन्द के अतिरेक से पहले तो वह बात भी न कर सका, फिर थोड़ा 'दम' लेकर फुसफुसाकर बोला, “मँझले भइया को माँ ने क्या हुक्म दिया है, जानते हो? हम लोगों के किसी भी काम में पड़ने की उन्हें अब जरूरत नहीं है। अब तुम और मैं दोनों एक कमरे में पढ़ेंगे - मँझले भइया की हम जरा भी 'केयर' (परवाह) न करेंगे।” इतना कहकर उसने अपने दोनों हाथों के अंगूठे एकत्र करके जोर से नचा दिए।

जतीन भी पीछे-पीछे आकर हाजिर हो गया। यह अपनी कारगुजारी की उत्तेजना में एकबारगी अधीर हो रहा था और छोटे भाई को यह सुसमाचार देकर यहाँ खींच लाया था। पहले तो वह कुछ देर तक खूब हँसता रहा। फिर हँसना बन्द करके अपनी छाती बारम्बार ठोंककर बोला, “मैं! मैं!! मेरे ही सबब से यह सब हुआ है, सो क्या तुम नहीं जानते? मैं यदि इसे (मुझे) मँझले भइया के सामने न ले गया होता तो क्या माँ ऐसा हुक्म देतीं? पर छोटे भइया, तुम्हें अपना कलदार लट्टू मुझे देना होगा सो कहे देता हूँ।”

“अच्छा दिया। ले आ, जा, मेरे डेस्क में से।” छोटे भाई ने उसी क्षण हुक्म दे डाला। किन्तु उसी लट्टू को घण्टे भर पहले शायद वह पृथ्वी की सारी सम्पत्ति के बदले भी न दे सकता।

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