उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
किन्तु शिकार जो हाथ से निकला जाता था! मँझले भइया स्थान-काल भूल गये, जोर से चिल्ला उठे और धमकाकर बोले, “खबरदार कहता हूँ, यहाँ से मत जा, श्रीकान्त! बुआ तब कुछ चौंक उठीं। इसके बाद मुँह फेर मँझले भइया की ओर देखकर केवल इतना ही बोलीं, “सतीऽऽ!”
बुआजी गम्भीर प्रकृति की औरत थीं। सारा घर उनसे डरता था। मँझले भइया तो बस उस एक तीखी नजर से ही भय के मारे सिटपिटा गये। और फिर, पास ही के कमरे में बड़े भाई भी बैठे थे। बात कहीं उनके कान तक गयी तो फिर खैर नहीं थी।
बुआजी का एक स्वभाव हम लोग हमेशा से देखते आ रहे थे। कभी किसी भी कारण वे शोरगुल करके लोगों को इकट्ठा करना पसन्द नहीं करती थीं। हजार गुस्सा होने पर भी वे कभी जोर से नहीं बोलती थीं। वे बोलीं, “जान पड़ता है, तेरे ही डर से यह यहाँ खड़ा है। देख सतीश, जब तब सुना करती हूँ कि तू बच्चों को मारता-पीटता है। आज से यदि कभी किसी को हाथ भी लगाया, और मुझे मालूम हो गया; तो इसी खम्भे से बँधवाकर नौकर के हाथ तुझे बेंत लगवाऊँगी। बेहया खुद तो हर साल फेल हुआ करता है - और फिर दूसरों पर रुआब गाँठता है! कोई पढ़े चाहे न पढ़े, आगे से तू किसी से भी कुछ पूछ न सकेगा!”
इतना कहकर, जिस रास्ते आई थीं कि उसी रास्ते मुझे लेकर वे चली गयी। मँझले भइया अपना-सा मुँह लिये बैठे रहे। यह बात मँझले भइया भली-भाँति जानते थे कि इस आदेश की अवहेलना करना किसी के वश की बात नहीं है।
मुझे अपने साथ ले बुआ अपने कमरे में आयीं, मेरे कपड़े बदलवाए, पेट भरकर गरम-गरम जलेबियाँ खिलाईं, बिस्तर पर सुला दिया और यह बात अच्छी तरह जताकर, बाहर से साँकल लगाकर, चली गयी कि मैं मर जाऊँ तो उनके हाड़ जुड़ा जाएँ!
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