उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
हमारे इन मँझले भइया को आप शायद इतने जल्दी भूले न होंगे। ये वही हैं जिनकी कठोर देख-रेख में कल शाम को हम सब पाठाभ्यास कर रहे थे और क्षण-भर बाद ही, जिनके सुगम्भीर 'ओं-ओं' शब्द और चिरागदान उलटा देने की चोट से गत रात्रि उस 'दि रॉयल बेंगाल' को भी दिग्भ्रमित होकर एक दफा अनार के वृक्ष पर आश्रय लेना पड़ा था।
'पंचाँग तो देख रे सतीश, आज इस बेला बैंगन खाना अच्छा है या नहीं।” कहती हुई पास के द्वार को खोलकर बुआजी ने जैसे ही घर में पैर रक्खा वैसे ही मुझे देखकर वे अवाक् हो गयी। “कब आया रे? कहाँ चला गया था? धन्य है लड़के तुझे - सारी रात नींद नहीं आई - सोच सोचकर मर गयी - उस इन्द्र के साथ चुपके-से जो बाहर गया, सो फिर दिखाई ही नहीं दिया। न खाना, न पीना; कहाँ था बोल तो रे अभागे। मुख स्याह हो गया है, आँखें लाल छलछला रही हैं - कहती हूँ, ज्वर तो नहीं चढ़ आया है? जरा पास में तो आ, देखूँ तो।” एक साथ इतने बहुत से प्रश्न करने के उपरान्त बुआ स्वयं ही आगे बढ़कर, मेरे कपाल पर हाथ देकर ही बोल उठीं, “जो सोचा था आखिर वही हुआ न! आँग खूब गरम है। ऐसे लड़कों के तो हाथ-पैर बाँधकर जल-बिछुआ लगा दिया जाय, तभी जी शान्त हो! तुझे घर से बिल्कुल बिदा करके ही अब और कुछ करूँगी। चल, भीतर चलकर सो जा, पाजी!” वे बैंगन-खाने के प्रश्न को बिल्कुल ही भूल गयीं। उन्होंने हाथ पकड़कर मुझे अपनी गोद में खींच लिया।
मँझले भइया ने बादलों के समान गम्भीर कण्ठ से संक्षेप में कहा, “अभी वह न जा सकेगा।”
“क्यों, यहाँ क्या करेगा? नहीं, नहीं, इस समय, अब इसका पढ़ना-लिखना न होगा। पहले दो कौर खाकर थोड़ा सो ले। आ मेरे साथ।” कहकर बुआजी मुझको लेकर चलने लगीं।
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