उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“कहाँ?”
“उस पार मछली पकड़ने।”
इन्द्र बंसी को उठाकर और सावधानी से पास में रखकर बोला, “अब मैं नहीं जाता।” उसकी बात सुनकर मुझे अचरज हुआ। पूछा, “उसके बाद क्या तुम एक दिन भी नहीं गये?”
'नहीं, एक दिन भी नहीं-मुझे सिर की कसम रखकर।” बात को पूरा किये बगैर ही कुछ सिटपिटाकर इन्द्र चुप हो गया।
उसके सम्बन्ध में मुझे यह बात रह-रहकर काँटे जैसी चुभती रही है। किसी तरह भी उस दिन की वह मछली बेचने की बात भूल न सका था, इसलिए यद्यपि वह चुप हो रहा पर मैं न रह सका। मैंने पूछा, “किसने तुम्हें सिर की कसम रखाई भाई? तुम्हारी माँ ने?”
“नहीं, माँ ने नहीं।” कहकर इन्द्र फिर चुप हो रहा। बंसी में धीरे-धीरे डोरी लपेटता हुआ बोला, “श्रीकान्त, अपनी उस रात की बात घर में तूने किसी से कही तो नहीं?”
'नहीं, किन्तु यह सभी जानते हैं कि मैं तुम्हारे साथ चला गया था।”
इन्द्र ने और कोई प्रश्न न किया। मैंने सोचा था कि अब वह उठेगा। किन्तु वह नहीं उठा, चुप बैठा रहा। उसके मुँह पर हमेशा हँसी का-सा भाव रहता था, परन्तु इस समय वह नहीं था। मानो, वह कुछ मुझसे कहना चाहता हो और किसी कारण, कुछ न कह सकता हो, तथा साथ ही, बिना कुछ कहे रहा भी न जाता हो- बैठे-बैठे भी मानो वह आकुलता का अनुभव कर रहा हो। आप लोग शायद यह कह बैठेंगे कि, “यह तो बाबू, तुम्हारी बिल्कुल मिथ्या बात है, इतना मनस्तत्व आविष्कार करने की उम्र तो वह तुम्हारी नहीं थी।” मैं भी इसे स्वीकार करता हूँ। किन्तु आप लोग भी इस बात को भूले जाते हैं कि मैं इन्द्र को प्यार करता था; एक आदमी दूसरे के मन की बात को जान सकता है तो केवल सहानुभूति और प्यार से - उम्र और बुद्धि से नहीं। संसार में जिसने प्यार किया है, दूसरे के मन की भाषा उसके आगे उतनी ही व्यक्त हो उठी है। यह अत्यन्त कठिन अन्तर्दृष्टि सिर्फ प्रेम के ज़ोर से ही प्राप्त की जा सकती है, और किसी तरह नहीं। उसका प्रमाण देता हूँ।
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