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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


इन्द्र ने मुँह उठाकर मानो कुछ बोलना चाहा परन्तु बोल न सकने से उसका समस्त मुख अकारण ही रँग गया। चट से सरकी का एक सोंटा उसने तोड़ लिया और वह उसे नीचा मुँह किये, पानी पर पटकने लगा; फिर बोला, “श्रीकान्त!”

“क्या है भइया?”

“तेरे-पास रुपये हैं?”

“कितने रुपये?”

“कितने? अरे यही चार-पाँच रुपये।”

“हैं। तुम लोगे?” कहकर मैंने बड़ी प्रसन्नता से उसके मुख की ओर देखा। ये थोड़े से रुपये ही मेरे पास थे। इन्द्र के काम में आने की अपेक्षा इनके और अधिक सद्व्यवहार की मैं कल्पना भी न कर सकता था! किन्तु कहाँ, इन्द्र तो कुछ खुश न हुआ। उसका मुँह तो मानो और भी अधिक लज्जा के कारण कुछ विचित्र किस्म का हो गया। कुछ देर चुप रहने के उपरान्त वह बोला, “किन्तु मैं इन रुपयों को तुम्हें लौटा न सकूँगा।”

“मैं इन्हें लौटाना चाहता भी नहीं,” यह कहकर गर्व के साथ मैं उसकी ओर देखने लगा।

और भी थोड़ी देर तक नीचा मुँह किये रहने के उपरान्त वह धीरे से बोला, “रुपये मैं स्वयं अपने लिए नहीं चाहता। एक आदमी को देने होंगे; इसी से मैंने माँगे हैं। वे लोग बेचारे बड़े दु:खी हैं- उन्हें खाने को भी नहीं मिलता। क्या तू वहाँ चलेगा?”

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