लोगों की राय

उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


“अपनी जीजी के यहाँ। क्या रुपये देने नहीं जाना है?”

“अपनी जीजी के लिए ही तो मैं बैठा हूँ। यही तो उनका घर है।”

“यही क्या तुम्हारी जीजी का घर है? यह तो सँपेरे-मुसलमान हैं!” इन्द्र कुछ कहने को उद्यत हुआ-पर फिर उसे दबा गया और चुप रहकर मेरी ओर ताकने लगा। उसकी दृष्टि बड़ी भारी व्यथा से मानो म्लान हो गयी। कुछ ठहरकर बोला, “एक दिन तुझे सब कहूँगा। साँप खिलाना देखेगा श्रीकान्त?”

उसकी बात सुनकर मैं अवाक् हो गया। “क्या साँप को खिलाओगे तुम? यदि काट खाए तो?”

इन्द्र उठकर घर के अन्दर गया और एक छोटी-सी पिटारी और सँपेरे की तूँबी (बाजा) ले आया। उसने उसे सामने रखा, पिटारी का ढक्कन खोला और तूँबी बजाई। मैं डर के मारे काठ हो गया, “पिटारी मत खोलो भाई, भीतर यदि गोखरू साँप हुआ तो?” इन्द्र ने इसका जवाब देने की भी जरूरत नहीं समझी, केवल इशारे से बता दिया कि मैं गोखरू साँप को भी खिला सकता हूँ। दूसरे ही क्षण सिर हिला-हिलाकर तूँबी बजाते हुए उसने ढक्कन को अलग कर दिया। बस फिर क्या था, एक बड़ा भारी गोखरू साँप एक हाथ ऊँचा होकर फन फैलाकर खड़ा हो गया। मुहूर्त मात्र का भी विलम्ब किये बगैर इन्द्र के हाथ के ढक्कन में उसने जोर से मुँह मारा और पिटारी में से बाहर निकल पड़ा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book